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________________ गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो २१७ . * तेवीसाए विहत्तिओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते खविदे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ते सेसे। .: ६२४३. णियमग्गहणमेत्थं कायव्वं सेसगइणिवारणहं १ ण, परहपडिसेहमुहेण सगढ-परूवयसद्दम्मि णियमुच्चारणस्स फलाभावादो । अत्रोपयोगी श्लोकः (निरस्यन्ती परस्यार्थ स्वार्थ कथयति श्रुतिः । तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा ॥२॥ ६२४४.जदि एवं तो एक्किस्से विहत्तीए सामित्तसुत्ते वि णियमग्गहणं ण कायव्वं ? ण, तस्स खवगा मणुस्सा चेवेत्ति अवहारफलत्तादो। मिच्छत्तं खविय सम्मामिच्छत्तं खवेतो ण मरदि त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। कथमेकं सुत्तं दोण्हजीव नहीं मरता है' इस मतकी पुष्टि की जासके । फिर भी चूंकि यतिवृषभ आचार्यने दो स्थलोपर दो प्रकारसे निर्देश किया है इससे सिद्ध होता है कि यतिवृषभ आचार्य के सामने दो मान्यताएं रहीं होंगी। यहां इतनी विशेषता है कि उच्चारणाचार्यके उपदेशसे कृतकृत्यवेदक जीव मरता ही नहीं है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उच्चारणाचार्यने चारों ही गतियों में बाईस प्रकृतिक स्थानके अस्तित्वका कथन किया है । * तेईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? जिस मनुष्य या मनुष्यनीके मिथ्यात्वका क्षय होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व शेष है वह तेईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है। ६२४३. शंका-इस सूत्रमें शेष तीन गतियोंके निवारण करनेके लिये 'नियम' पदका ग्रहण करना चाहिये ? समाधान-नहीं, क्योंकि प्रत्येक शब्द दूसरे शब्दसे व्यक्त होनेवाले अर्थका प्रतिषेध करके अपने अर्थका प्ररूपण करता है, इसलिये सूत्रमें नियम शब्दके कहनेका कोई प्रयोजन नहीं है। अब यहां उपयोगी श्लोक देते हैं 'जिसप्रकार प्रभा अन्धकारका नाश करके प्रकाश्यमान पदार्थको प्रकाशित करती है उसीप्रकार शब्द दूसरे शब्द के द्वारा कहे जानेवाले अर्थका निराकरण करके अपने अर्थको कहता है ॥२॥ ६२४१. शंका-यदि ऐसा है तो एक प्रकृतिक स्थानके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्र में भी नियम' पदका ग्रहण नहीं करना चाहिये ? ' समाधान-नहीं, क्योंकि उसके स्वामी क्षपक मनुष्य ही होते हैं यह बतलानेके लिये वहां 'नियम' पद दिया है। ..... शंका-मिथ्यात्वका क्षय करके सम्यग्मिथ्यत्वका क्षय करनेवाला जीव नहीं मरता, __ यह कैसे जाना जाता है ? ......... ... . .. ........ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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