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________________ पाणवित्त समुक्कित्तणां २२५. मोहडावीसपयडीओ जत्थ संतं तत्थ अट्ठावीसाए द्वाणं होदि । *संपहि एसा । ९२२६. एदेसिमोघपण्णारसपयाडट्ठाणाणं संदिट्ठी गा० ३२ ] *२८ २७२६ २४ २३२२ २१ १३१२११५४३२१ *एवं गदियादिसु णेदव्वा । ३२२७. गदियादिसु चोदसमग्गणहाणेसु छाणसमुक्कित्तणा जाणिदृण रोदव्वा; सुगमतादो । ३२२८.संपहि चुण्णिसुताइरियेण सूचिदं मंदबुद्धिजणा गुग्गहरुमुच्चारणाइरियवयणविणिग्गय विवरणं भणिस्सामो। तं जहा - मणुसतिय पचिदिय पंचि ० पञ्ज०-तस-तसपज ०पंचमण० - पंचवचि० -कायजोगि० - ओरालिय० - चक्खु० -अचक्खु सुक्क० भवसि० - सण्णि-आहारीणमोघभंगो (णवरि मणुसिणीसु पंचपयडिद्वाणं णत्थि ।) २०५ ० २२५. जहां पर मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता पाई जाती है वहां पर अट्ठाईस प्रकृतिक विभक्तिस्थान होता है । *अब यह— $२२६. ओघकी अपेक्षा कहे गये इन पन्द्रह प्रकृति स्थानोंकी संदृष्टि है* २८ २७२६ २४ २३२२ २१ १३ १२ ११५४३२१ *इसी प्रकार गति आदि मार्गणाओंमें उक्त स्थानोंको जान लेना चाहिये । ६२२७. गति आदि चौदह मार्गणास्थानों में स्थानसमुत्कीर्तनाको जान कर लगा लेना चाहिये, क्योंकि वह सुगम है । २२८. अब आगे मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये, चूर्णिसूत्रकारोंके द्वारा सूचित किये गये और उच्चारणाचार्य के मुखसे निकले हुए व्याख्यानको कहते हैं । वह इस प्रकार हैसामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक इनके पन्द्रहों प्रकृतिसत्त्वस्थान ओघके समान होते हैं । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंके - पांच प्रकृतिकसत्त्वस्थान नहीं पाया जाता । Jain Education International विशेषार्थ- पहले जो सामान्य से पन्द्रह सत्त्वस्थानोंका कथन कर आये हैं वे सामान्य मनुष्य आदि सभी मार्गणाओं में सम्भव हैं क्योंकि इन मार्गणाओंमें प्रारम्भके बारह गुणस्थान नियमसे पाये जाते हैं । किन्तु मनुष्यनी छह नोकषाय और पुरुषवेदका एक साथ कम करती है अतः उसके पांच प्रकृतिरूप स्थान नहीं पाया जाता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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