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________________ प्रस्तावना विषयपरिचय इस भागमें प्रकृतिविभक्तिका वर्णन है। प्रारम्भमें ही आचार्य यतिवृषभने विभक्ति शब्दका निक्षेप करके उसके अनेक अर्थों को बतलाया है। फिर लिखा है कि यहां पर इन अनेक प्रकारकी विभक्तियोंमेंसे द्रव्यविभक्तिके कर्मविभक्ति और नोकर्मविभक्ति इन दो अवान्तर भेदों में से कर्मविभक्ति नामकी द्रव्यविभक्तिसे प्रयोजन है। कषाय प्राभूतमें उसोका वर्णन है। इसके बाद कषायप्राभृतकी बाईसवीं गाथाका व्याख्यान करते हुए आचार्य यतिवृषभने उससे ६ अधिकारोंका ग्रहण किया है और उनमेंसे सबसे प्रथम प्रकृतिविभक्ति नामक अधिकारका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है। प्रकृतिविभक्तिके दो भेद किये हैं—मूल प्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति। इस ग्रन्थमें केवल मोहनीय कर्म और उसकी उत्तर प्रकृतियोंका ही वर्णन है । अत: यहां मूल प्रकृतिसे मोहनीयकर्म और उत्तरप्रकृतिसे मोहनीयकर्मकी उत्तर प्रकृतियां ही ली गई हैं । मूलप्रकृतिविभक्ति मूल प्रकृतिविभक्तिका वर्णन करनेके लिये आचार्य यतिवृषभने आठ अनुयोगद्वार रक्खे हैंस्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्प बहुत्व । किन्तु उच्चारणाचार्यने सतरह अनुयोगद्वारोंके द्वारा मूल प्रकृतिविभक्तिका वर्णन किया है। चूंकि चूर्णि सूत्र संचित हैं. और चूर्णिसूत्रकारने केवल अत्यन्त आवश्यक अनुयोगोंका ही सामान्य वर्णन किया है, अत: जयधवलाकारने सर्वत्र अनुयोगद्वारोंका वर्णन उच्चारणावृत्तिके अनुसार ही किया है। सतरह अनुयोगद्वारोंका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जाता है। समुत्कीर्तना-इसका अर्थ होता है-कथन करना । इसमें गुणस्थान और मार्गणाओं में मोहनीयकर्मका अस्तित्व और नास्तित्व बतलाया गया है । ग्यारहवें गुणस्थान तक सभी जीवोंके मोहनीयकर्मकी सत्ता पाई जाती है और बारहवें गुणस्थानसे लेकर सभी जीव उससे रहित हैं। अतः जिन मार्गणाओंमें क्षीण कषाय आदि गुणस्थान नहीं होते, उनमें माहनीयका अस्तित्व ही बतलाया है । और जिन मार्गणाओंमें दोनों अवस्थाएं संभव हैं उनमें अस्तित्व और नास्तित्व दोनों बतलाए हैं। __ सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव-इसमें बतलाया है कि मोहनीयांवभक्ति किसके सादि है, किसके अनादि है, किसके ध्रुव है, और किसके अध्रुव है ? स्वामित्व-इसमें मोहनीयकर्मके स्वामीका निर्देश किया है। जिसके मोहनीयकर्मकी सत्ता वर्तमान है वह उसका स्वामी है। और जो मोहनीयकर्मकी सत्ताको नष्ट कर चुका है वह उसका स्वामी नहीं है। काल-इसमें बतलाया गया है कि जीवके मोहनीयकर्मकी सत्ता कितने काल तक रहती है और असचा कितने काल तक रहती है ? किसीके मोहनीयकी सचा अनादिसे लेकर अनन्तकाल तक रहती है और किसीके अनादि सान्त होती है। अन्तर-इसमें यह बतलाया गया है कि मोहनीयकर्मकी सचा एक बार नष्ट होकर पुनः कितने समयके बाद प्राप्त हो जाती है। किन्तु चूकि मोहनीयका एक बार क्षय हो जानेके बाद पुनः बन्ध नहीं होता अतः मोहनीयका अन्तरकाल नहीं होता। (१) पृ० १६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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