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________________ १३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ हत्तिओ। लोभसंज० जो विहत्तिओ सो सव्वे० हेठिमाणं पयः सिया विहत्ति०, सिया अविहत्तिः । इत्थिवेदस्स जो विहत्ति० सो छण्णोकसाय-पुरिस०-चदुसंजलणाणं णियमा विहत्तिओ। सेसाणं पयडीणं सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तिओ। णqसयवेदम्स जो विहत्तिओ सो छण्णोक०-पुरिस-चदुसंजलणाणं णियमा विहत्तिओ, सेसाणं पदाणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहतिओ। पुरिसवेदस्स जो विहत्तिओ सो चदुसंजलणाणं णियमा विहत्तिओ। सेसाणं पय सिया विहत्ति सिया अविहत्ति । हस्सस्स जो विहत्तिओ सो पंचणोकसायाणं पुरिस०-चदुसंजलणाणं णियमा विहत्तिओ। सेसाणं पयडीणं सिया विहत्तिओ, सिया अविहत्तिओ। एवं पंचणोकसायाणं । एवं मणुसतियस्स । णवरि, मणुसिणीसु णवंसयवेदस्स जो विहत्तिओ सो इत्थिवेदस्स णियमा विहत्तिओ। पुरिसवेदस्स छण्णोकसायभंगो। पंचिदिय-पंचिं० पज०-तस०तसपज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-लोभकसायी-चक्खु०-अचक्खु० सुक्कले०-भवसिद्धि-सण्णि-आहारीणमोघभंगो। . पहलेकी सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । जो जीव स्त्रीवेदकी विभक्तिवाला है वह छह नोकषाय, पुरुषवेद और चारसंज्वलनकी विभक्तिवाला निथमसे है। परन्तु शेष सोलह प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित है और कदाचित् नहीं है। जो जीव नपुंसकवेदकी विभक्तिवाला है वह छह नोकषाय, पुरुषवेद और चार संज्वलनकषायकी विभक्तिवाला नियमसे है। तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है, कदाचित् नहीं है। जो जीव पुरुषवेदकी विभक्तिवाला है वह चार संज्वलनकी विभक्तिवाला नियमसे है। परन्तु वह शेष तेईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। जो जीव हास्य नोकषायकी विभक्तिवाला है वह पांच नोकषाय, पुरुषवेद और चार संज्वलनकी विभक्तिवाला नियमसे है। परन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला वह कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। इसीप्रकार पांच नोकषायोंकी अपेक्षा कहना चाहिये। यह जो ऊपर ओघप्ररूपणा की है इसीप्रकार समान्य और पर्याप्त मनुष्य तथा मनुष्यनीके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें जो नपुंसकवेदकी विभक्ति वाला है वह स्त्रीवेदकी विभक्तिवाला नियमसे है। पुरुषवेदका छह नोकषायके समान कथन करना चाहिये । तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके सन्निकर्षका कथन ओघके समान है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वगुणस्थानमें जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं की उसके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है। तथा सम्यक्त्वकी उद्वेलना करनेपर सत्ताईस और सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना करनेपर छब्बीस प्रकृतियां सत्तामें रहती हैं। उपशम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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