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________________ गा० २२] tassiupaहत्ती मंगविच ३०७ अहवा पुव्वुत्तसंदिट्ठिम्हि उवरिमदस-णव- अट्ठण्हमण्णोष्णगुणिदाणं हे टिमएक-वे-ती ह अण्णोष्णगुणिदेहि ओवट्टणम्मि कदे अहं संकलणा संकलणमेचपत्थारसलागाओ लब्भंति । एदेण बीजपदेण चदुसंजोगादीणं सव्वपत्थारा जाणिदूण णेदव्वा जाव दस संजोगपत्थारो ति । जो ऊपर संदृष्टि स्थापित कर आये हैं उसमें ऊपरकी पंक्ति में स्थित १०, ६ और ८ का गुणा करे | तथा नीचेकी पंक्ति में स्थित १, २ और ३ का अलग गुणा करे । अनन्तर १०, और के गुणनफल ७२० को १, २ और ३ के गुणनफल ६ से भाजित करनेपर आठ गच्छके संकलनाके जोड़ प्रमाण कुल प्रस्तारशलाकाएं प्राप्त होती हैं। इसी बीजपदसे चारसंयोगी आदिसे लेकर दस संयोगी प्रस्तार तक सभी प्रस्तार जानकर निकाल लेना चाहिये । C विशेषार्थ - धवला प्रकृति अनुयोगद्वार में मुख्यतः त्रिसंयोगी भंगोंके लाने के लिये एक करणसूत्र आया है । जिसका आशय यह है कि 'गच्छका वर्ग करके उसमें वर्गमूलको जोड़ दे । पुनः आदि उत्तरसहित गच्छसे गुणा करके छहका भाग दे दें तो संकलनाकी कळना अर्थात् जोड़ प्राप्त होता है'। इसके अनुसार प्रकृत में भजनीय पद १० होते हुए भी उनमें से दो कम कर देनेपर शेष ८ प्रमाण गच्छ होता है, क्योंकि त्रिसंयोगी भंग उत्पन्न करते समय क्रमसे कोई दो पद व होते जाते हैं और शेष पदोंपर एक एक करके तीसरे अक्षका संचार होता है । अतः ८ का वर्ग ६४ हुआ, तथा इसमें ८ मिलाने पर ७२ हुए । पुनः आदि उत्तर सहित गच्छसे गुणा करनेपर ७२० हुए । तदनन्तर इसमें ६ का भाग देनेपर ८ गच्छकी संकलना की कलना अर्थात् जोड़ १२० हुआ । यहां ये ही त्रिसंयोगी प्रस्तारविकल्प जानना चाहिये । वीरसेन स्वामीने ऊपर 'अट्ठण्यं संकलणा संकलणमेत्तपत्थारस लागाओ' पदसे इन्हीं १२० प्रस्तारविकल्पों का उल्लेख किया है । पृथक् पृथक् वे १२० प्रस्तारविकल्प इस प्रकार प्राप्त होते हैं ध्रुव किये हुए २ पद तीसराअक्ष २३, २२ २३, १३ २२, १३ २३, १२ २२, १२ १३, १२. २३, ११ २२, ११ Jain Education International १३ से १ तक कोई १२ से १ तक "9 ११ से १ तक 39 "" ५ से १ तक भंग ध्रुव किये हुए २ पद तीसराअक्ष १३, ११ १२, ११ २३, ५ २२, ५ 39 "" 39 "" ७ ५ ५ १३, ५ १२, ५. ११, ५ २३, ४ For Private & Personal Use Only " 99 ४ से १ तक " 23 " 99 99 ३ से १ तक भङ्ग ५. 59 99 ४ ४ ४ 8 8 st www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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