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________________ जयधवलासहिंद कसायपीहुडे [पयडिविहाची ३ ___६३४२. तेसिं पत्थाराणमुच्चारणाए विणा हवणविहाणपरूवणगाहा एसा । तं जहा 'भंगायामपमाणो लहुओ गरओ ति अक्खणिक्खेगी। तत्तो य दुगुण-दुगुणो पत्यारो होइ कायव्वो ॥५॥' २२, ४ २३, २ १२, ४ ३ से १ तक कोई ३ १ स्थान 2 m ه ه २३, २ व १ कोई mmmmm MMMMMC س n o २२, ३ १३, ३ 20 m १२, ३ ११, ३ प्रस्तारविकल्प १२० __ अथवा ये १२० प्रस्तारविकल्प ‘एकोत्तरपदवृद्धो' इत्यादि करणसूत्रके नियमानुसार भी प्राप्त किये जा सकते हैं जो अनुवादमें बतलाये ही हैं। तथा चारसंयोगी आदि प्रस्तारविकल्प भी इसी प्रकार प्राप्त किये जा सकते हैं । यथा चारसंयोगी-१२०४४ =२१० प्रस्तारविकल्प पांचसंयोगी-२१०४६ =२५२ छहसंयोगी- २५२४५ =२१० सातसयोगी-२१०x४ =१२० आठसंयोगी-१२०४३ =४५ नौसंयोगी- ४५ ४३ =१० दससंयोगी-१० ४. १ ६३४२. आलापोंके बिना, उन प्रस्तारोंकी स्थापनाकी विधिका प्ररूपणा करनेवाली गाथा इस प्रकार है 'पहली पंक्तिमें जहां जितने भंग हों तत्प्रमाण एक लधु उसके 'अनन्तर एक गेर इस प्रकार क्रमसे अक्षका निक्षेप करना चाहिये । तथा इसके आगे द्वितीयादि पंक्तियोंमें दना दूना करना चाहिये । इस प्रकार करनेसे प्रस्तार प्राप्त होता है ॥५॥ (१) पादे सबगुरावाद्याल्लघु न्यस्य गुरोरधः। यथोपरि तथा शेषं भूयः कुदिमु विधिम् ।२।। ऊने दद्यात गुरूनेव यावत्सर्वलघुर्भवेत् । प्रस्तारोऽयं समास्यातरा छन्दोविचितिवेदिभिः ॥३॥' वृत्तर० अ०६ श्लो०२-३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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