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________________ गा० २२) पयडिट्ठाणविहत्तौए सामित्तणिदेसो मोहणीयस्स । एकवीसवीह कस्स ? अण्ण तिगइखइयसम्माइहिस्स । ___६२६६. तेउ-पम्मलेस्सासु अट्ठावीसविह० कस्स ? अण्ण तिगइमिच्छा०-सम्मामि०सम्मादिडीणं । सत्तावीस-छच्चीसविह० कस्स ? अण्ण० तिगइमिच्छाइडिस्म । चउवीसबिह० कस्स ! अण्ण तिगइसम्माइहिस्स । एवमेकवीस० वतव्वं । तेनीसविह. महीं किया है ऐसे नरक, तियच और मनुष्य गतिके किसी भी कृतकृत्यवेदक सम्बग्हष्टिके होता है। इसीस विभक्तिस्थान किसके होता है ? उक्त तीन गतियोंके किसी भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। विशेषार्थ-देवगतिके सिवा शेष तीन गतियों में कृष्णलेश्याके रहते हुए सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकारके जीवोंके २८ प्रकृतिक सत्त्वस्थान बन जाता है यह तो स्पष्ट ही है, किन्तु देवगतिमें कृष्णलेश्याके रहते हुए यह स्थान मिथ्यादृष्टिके ही प्राप्त होता है, क्योंकि कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएं भवनत्रिकमें अपर्याप्त अवस्थामें ही पाई जाती हैं और इनके अपर्याप्त अवस्थामें सम्यग्दर्शन नहीं होता । २७ और २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान चारों गतिके कृष्णलेश्यावाले मिथ्यादृष्टियोंके सम्भव है, क्योंकि ऐसे जीवोंके चारों गतियोमें पाये जानेमें कोई बाधा नहीं। २४ प्रकृतिक सत्त्वस्थान कृष्णलेश्याके रहते हुए देवगतिमें नहीं बतलानेका कारण यह है कि देवगतिमें कृष्णलेश्या अपर्याप्त अवस्थामें भवनत्रिकके पाई जाती है पर वहां सम्यग्दर्शन नहीं होता ऐसा नियम है। कृष्णलेश्यामें २३ और २२ प्रकृतिक सत्त्वस्थान नहीं पाये जाते, क्योंकि वर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ अशुभ लेश्यावाले जीवके नहीं होता। २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थान पाया तो जाता है पर यह मनुष्य या मनुष्यनीके ही सम्भव है, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जानेपर मनुष्यगतिमें छहों लेश्याएँ सम्भव हैं। नीललेश्या और कापोतलेश्यामें भी इसी. प्रकार सत्त्वस्थान प्राप्त होते हैं। किन्तु कापोतलेश्यामें २२ और २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है। वात यह है कि प्रथम नरकके नारकी, भोगभूमिज तिर्यच और मनुष्यों के अपर्याप्त अवस्थामें कापोत लेश्या पाई जानेके कारण कापोत लेश्यामें उक्त तीन गतिका जीव २२ और २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानका स्वामी बन जाता है। प्रथम नरकमें कापोतलेश्या ही है और क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यके भी कापोतलेश्या हो सकती है इसलिये इन दो गतिके जीव पर्याप्त अवस्थामें भी २१ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी हो सकते हैं। ६२६६.पीत और पद्मलेश्यामें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? नरकगतिको छोड़कर शेष तीन गतियों के मिथ्यावृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवके होता है । सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थान किसके होते हैं ? उक्त तीन गतियोंके किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं । चौबीस विभक्तिस्थान किसके होता है। उक्त तीन गतियों के किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके होता है। इसीप्रकार इक्कीस विभक्तिस्थानका भी कथव Jai Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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