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________________ २५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ पुचकोडाउएसु मणुस्सेसुववाजिय तत्तो कालं काऊण अणंतरमणुस्साउएणूणएक्कतीससागरोवमष्टिदिएसु देवेसुप्पजिय तदो अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए सम्मामिच्छतं गंतूण तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो सम्मत्तं पडिवजिय कालं काऊण पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववन्जिय तदो कालं काऊण मणुस्साउएणूणबीससागरोवमाउद्विदिएसु देवेसुप्पजिय कालं काऊण पुव्वकोडाउअमणुस्सेसुववजिय पुणो मणुस्साउएणूणवावीससागरोवम हिदिएसु देवेसुप्पन्जिय तदो कालं काऊण पुवकोडाउअमणुस्सेसुववन्जिय पुणो अंतोमुहुतब्भहियअवस्साहियमणुस्साउएणूणचउवीससागरोवमहिदीएसु देवेसुववाजिय कालं काण पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुक्वजिय गब्भादिअहवस्साणमंतोमुहुत्तब्भहियाणमुवरि मिच्छत्तं खविय तेवीसविहत्तियत्तं गयस्स चउवीसविहत्तीए सादिरेयवेछावहिसागरोवममेत्तुक्कस्सकालुवलंभादो। ६२८५. किमदिरेयपमाणं ? सम्मामिच्छत्त-सम्मत्तखवणकालं उवसमसम्मत्तेण सह हिदचउवीसविहत्तियकालम्मि सोहिदे सुद्धसेसमेत्तमदिरेगपमाणं । दसणमोहक्खवणकालादो उवसमसम्मत्तकालो संखेजगुणो त्ति कधं णव्वदे ? अप्पाबहुगवयणादो। तं मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर वहांसे मरकर पूर्वोक्त मनुघ्यायुसे न्यून इकतीस सागरप्रमाण आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ और वहां आयुमें अन्तमुहूर्त शेष रह जानेपर सम्यमिथ्यात्वको प्राप्त होकर तथा सम्यमिथ्यात्व गुणस्थानमें अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और मरकर पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ तदनन्तर वहांसे मरकर पूर्वोक्त मनुष्यायुसे कम बीस सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुप्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर पूर्वोक्त मनुष्यायुसे कम बाईस सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। अनन्तर आठवर्ष अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वोक्त मनुष्यायुसे न्यून चौबीस सागरप्रमाण स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर वहांसे मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां गर्भसे आठवर्ष और अन्तर्मुहूर्त कालके व्यतीत हो जानेपर मिथ्यात्वका क्षय करके तेईस प्रकृतिक स्थानको प्राप्त हुआ। तब उसके चौबीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर पाया जाता है। २८५.शंका-अधिक कालका प्रमाण क्या है ? समाधान-उपशमसम्यक्त्वके साथ स्थित चौबीस प्रकृतिक स्थानके कालमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षपणाके कालको घटा देनेपर जो शुद्धकाल शेष रह जाय वह यहां अधिक कालका प्रमाण है। शंका-दर्शनमोहनीयके क्षपणाकालसे उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है यह . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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