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________________ vvv गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए कालो २५१ जहा-सव्वत्थोवा चारित्तमोहक्खवय-अणियाट्टअद्धा, तस्सेव अपुन्वअद्धा संखेजगुणा, कसायउवसामयस्स अणियट्टिअद्धा संखेअगुणा, तस्सेव अपुव्वअद्धा संखेजगुणा, दसणमोहक्खवय-आणियहिअद्धा संखेजगुणा, तस्सेव अपुन्व-अद्धा संखेजगुणा, अणंताणुबंधिचउक्कविसंजोएंतस्स अणियटिअद्धा संखेजगुणा, अपुव्वअद्धा संखेजगुणा । दंसणमोहउवसामयस्स अणियहिअद्धा संखेजगुणा, तस्सेव अपुव्वअद्धा संखेजगुणा, उवसमसम्मत्तद्धा संखेजगुणे त्ति । कैसे जाना जाता है ? ... समाधान-अल्पबहुत्वके प्रतिपादक वचनोंसे जाना जाता है कि दर्शनमोहके क्षपणाकालसे उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है। वे अल्पबहुत्वके प्रतिपादक वचन इस प्रकार हैं-चारित्रमोह के क्षपक अनिवृत्तिकरणका काल सबसे कम है । इससे चारित्रमोहके क्षपक अपूर्व करणका काल संख्यातगुणा है। इससे कषायके उपशामक अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे कषायके उपशामक अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे दर्शनमोहके क्षपक अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है । इससे इसी दर्शनमोहके क्षपक अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है । इससे अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करने वाले जीवके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे दर्शनमोहकी उपशामना करनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है । इससे उसीके अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है। इससे उपशमसम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है। विशेषार्थ-चौबीस विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ बत्तीस सागर होता है जिसे घटित करके ऊपर बतलाया ही है। यहां इतनी ही विशेष बात लिखनी है कि जो जीव उपशमसम्यक्त्वके कालमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके उपशमसम्यक्त्वके सबसे बड़े काल तक चौबीस विभक्तिस्थानके साथ उपशमसम्यक्त्वी होकर रहता है पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके कुछ कम छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रह कर अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें जाकर अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् पुनः वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है और दूसरी बार वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके व्यासठ सागरमें जब अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाय तब मिथ्यात्वकी क्षपणा करके तेईस विभक्तिस्थानवाला हो जाता है उसके ही चौबीस विभक्तिस्थानका यह उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। यहां यदि प्रारम्भमें बतलाये गये चौबीस विभक्तिस्थानके साथ उपशमसम्यक्त्वके कालको अलग करदिया जाय और कुछ कम दूसरे छयासठ सागरमें सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृतिके क्षपणाकालको मिला दिया जाय तो प्रारम्भमें प्राप्त हुए वेदकसम्यक्त्वके कालसे लेकर सम्यकप्रकृतिके क्षपणाकाल तक एकसौ बत्तीस सागर होते हैं। किन्तु सम्यग्मि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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