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________________ २५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहची ३ * छन्वीसविहत्ती केवचिरं कालादो ? अणादि-अपज्जवसियो । ६२८६. कुदो ! अमध्वस्स अभव्बसमाणभव्वस्स वा छब्बीसविहत्तीए आदि-अंताणमभानादो। * अणादि-सपजवसिदो। ६२८७. भव्यम्मि छब्बीसबिहात्ति पडि आदिवाजियम्मि सम्मले पडिवण्ये छव्वीसविहत्तीए विणासुवलंभादो। * सादि-सपजवसिदो। ६२८८. सम्मत्चसम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिय छब्बीसबिहनियमावमुवगयस्स छव्वीसविहत्तीए विणासुवलंभादो। ध्यात्व और सम्यक्प्रकृतिकी क्षपणाके समय चौबीस विभक्तिस्थान नहीं रहता, अतः इन दोनों प्रकृतियोंके क्षपणाकालको एकसौ बत्तीस सागरमेंसे घटा देना चाहिये और प्रारम्भमें बतलाये गये उपशमसम्यक्त्वके काल में चौबीस विभक्तिस्थान रहता है अतः इस कालको सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षपणाकालसे रहित एकसौ बचीस सागरप्रमाण काल में जोड़ देना चाहिये तो इस प्रकार चौबीस विभक्तिस्थानका साधिक एकसौ बत्तीस सागरप्रमाण काल आ जाता है । यद्यपि एक ओर सम्यग्मिध्यात्व और सम्यकप्रकृति के क्षपणाकालको घटाया है और दूसरी ओर चौबीस विभक्तिस्थानके साथ स्थित उपशमसम्यक्त्वके कालको जोड़ा है फिर भी उक्त दो प्रकृतियोंके क्षपणाकालसे चौबीस विभक्तिस्थानके साथ स्थित उपशमसम्यक्त्वका काल अधिक है अतः चौबीस विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल साधिक एकसौ बत्तीस सागर हो जाता है। * छब्बीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? अनादि-अनन्त काल है। ६२८६ शंका-छन्बीस प्रकृतिक स्थानका अनादि-अनन्त काल कैसे है ? समाधान-क्योंकि, जो जीव अभव्य हैं या अभव्योंके समान हैं उनके छब्बीस प्रकृतिक स्थानका आदि और अन्ख नहीं पाया जाता है। * छब्बीस प्रकृतिक स्थानका काल अनादि सान्त भी है। ६२८७.अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यजीवके छब्बीस प्रकृतिक स्थान आदिरहित है, पर जब वह सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है तब उसके छब्बीस प्रकृतिक स्थानका अन्त हो जाता है, इसलिये छब्बीस प्रकृतिक स्थानका काल अनादि-सान्त भी है। * तथा छब्बीस प्रकृतिक स्थानका काल सादि सान्त भी है। ६२८८. अट्ठाईस प्रकृतिकी सत्तावाले जिस सादि मिध्यादृष्टिने सम्यक्त्व और सम्यगमिध्यात्वकी उद्वेलना करके छब्बीस प्रकृतिरूपस्थानको प्राप्त किया है उसके छब्बीस प्रकृतिक स्थानका विनाश देखा जाता है, इसलिये छब्बीस प्रकृतिक स्थान सादि-सान्त भी है। strar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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