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________________ ४२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविंहची २ अस्थि जहण्णव ड्ढि-हाणि-अवहाणाणि । एवं णिरय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय मणुसतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदिय-पंचिं० पज० तस-तसपज.. पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्विय०-तिण्णिवेद०-चत्तारिकसायअसंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-छलेस्सा०-भवसिद्धि-सणि-आहारि त्ति । पंचिंदियतिरिक्ख-अपज० अस्थि जहण्णहाणि-अवहाणाणि । एवं मणुसअपञ्ज०-अणुद्दिसादि जाव सन्बह-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं० अपज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालिय. मिस्स वेउब्धियमिस्स-कम्मइय०-अवगदवेद०-मदि-सुदअण्णाण-विहंग० -आभिणि सुद०-ओहि०-मणपज-संजद० -सामाइयच्छेदो०-परिहार० -संजदासंजद० -ओहिदंस० सम्मादि०-खइय०-वेदय०-मिच्छा०-असण्णि-अणाहारित्ति । आहार-आहारमिस्स०अकसाइ० सुहुम०-जहाक्खाद०-उवसम-सासण-सम्मामि० अस्थि जहण्णमवहाणं । दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा जघन्यवृद्धि जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान होते हैं। इसीप्रकार नारकी, तिथंच, पंचेन्द्रियतियच आदि तीन प्रकारके तिथच, सामान्य मनुष्य आदि तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । ___ पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान होते हैं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाय. योगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्थयज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । ___ आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जघन्य अवस्थान होता है। - विशेषार्थ-जघन्य वृद्धि आदिकी समुत्कीर्तनामें जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका प्रहण किया है, जो स्वामित्व अनुयोगद्वारसे जाना जा सकता है। अभव्योंके एक २६ विभक्तिरूप ही स्थान होता है अतः उसका जघन्य अवस्थानमें निर्देश नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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