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________________ गा० २२] वढिविहत्तीए परिमाणाणुगमो सेसप० असंखे०भागो। एवमोहिदंस-सम्मादि०-खइयसम्माइ० । एवं भागाभागाणुगमो समत्तो। $ ५१२. परिमाणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजभागवढी-हाणिविहत्तिया केत्तिया ? असंखेजा । संखे० गुणहाणि संखेजा। अवष्टिया केतिया ? अणंता । एवं कायजोगि०-ओरालि०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसिद्धि०-आहारीणं वत्तव्वं ।। ६५१३. आदेसेण णेरइएमु संखेजभागवड्ढीहाणी-अवठाणाणि केत्तिया ? असंखेजा । एवं सव्वणिरय०-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवजवेउव्विय०-इत्थि-तेउ०-पम्म० वत्तव्वं । तिरिक्व० ओघभंगो। णवरि संखेजगुणहाणी णत्थि । एवं णस-असंजद-तिण्णिलेस्साणं । पंचिं० तिरि० अपज्ज० संखेजभागहाणि-अवढि० केत्ति ? असंखेजा। एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव अवराइद-सव्वविंगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज०-चत्तारिकाय०- तसअपज०-वेउव्वियमिस्सस्थानवाले जीव असंख्यात एक भाग हैं। इसीप्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जोवोंके भागाभाग कहना चाहिये । इसप्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ५१२: परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका होता है-ओघनिर्देश और । आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओधकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धिविभक्तिस्थानवाले जीव और संख्यात भागहानि विभक्तिस्थानवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? असंख्यात हैं । तथा संख्यातगुणहानिविभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात हैं। अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसीप्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, क्रोधादि चारों कपायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंका द्रव्य प्रमाण कहना चाहिये। $ ५१३. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार सभी नारकी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और योनिमती ये तीन प्रकारके तिर्यंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंका द्रव्यप्रमाण कहना चाहिये । तिर्यचोंका द्रव्यप्रमाण ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणहानि नहीं होती है । इसीप्रकार नपुंसकवेदी, असंयत और कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले जीवोंका द्रव्य प्रमाण कहना चाहिये, पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव प्रत्येक कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पृथिवीकायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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