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________________ ४२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६४७६. उक्कस्सपदसमुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अत्थि उक्कस्सवड्ढी-हाणि-अवट्ठाणाणि । एवं सत्तपुढवि०-तिरिक्ख०पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदिय-पंचिं. पज०-तस-तसंपन्ज -पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्वि०-तिण्णिवेद चत्वारि क०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-छलेस्सा-भवसिद्धि०-सण्णि-आहारि ति। पंचि० तिरि०अपज अस्थि उक्कस्सहाणि-अवठाणाणि । एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह उत्कृष्ट वृद्धि है। यहां इतनी विशेषता है कि हानि सब स्थानोंसे होती है पर वृद्धि २७, २६ और २४ इन तीन विभक्तिस्थानोंसे ही होती है । इस प्रकार इन सब बातोंका विचार इस पदनिक्षेप अनुयोगद्वारमें किया गया है। ६४७६. उत्कृष्ट पद समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होते हैं । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तिर्यच, पंचेन्द्रियतिथंच आदि तीन प्रकारके तियंच, सामान्य मनुष्य आदि तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, प्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ-ओघकी अपेक्षा २१ विभक्तिस्थानसे १३ विभक्तिस्थानकी प्राप्तिके समय उत्कृष्टहानि और २४ विभक्तिस्थानसे २८ विभक्तिस्थानकी प्राप्तिके समय उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उत्कृष्ट हानिके पश्चात् होनेवाले अवस्थानको हानिसम्बन्धी और उत्कृष्ट वृद्धिके पश्चात् होनेवाले अवस्थानको वृद्धिसम्बन्धी उत्कृष्ट अवस्थान कहते हैं। ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उन सबमें उत्कृष्ट हानि, उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थान संभव हैं अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि सक्त सभी मार्गणाओंमें २१ विभक्तिस्थानसे १३ विभक्तिस्थानकी प्राप्ति होती है। किन्तु यहां ओघके समान कहनेका यह अभिप्राय है कि उक्त मार्गणाओं में हानि, वृद्धि और अवस्थान तीनों सम्भव हैं अतः उनका कथन ओघके समान कहा गया है। किस मार्गणामें अधिकसे अधिक कितनी प्रकृतियोंकी हानि, वृद्धि और तदनन्तर अवस्थान होता है इसका आगे खामित्व अनुयोगद्वारमें खुलासा किया ही है। अतः इस विषयको वहांसे जान लेना चाहिये। ... पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होते हैं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, सर्व एकेन्द्रिय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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