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________________ २१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ मिच्छा० भवसिद्धि० वत्तव्वं । णवरि, भवसिद्धिएसु धुवं णत्थि । पदविसेसो च जाणिव्वो । अभवसिद्धिएस प्रणादियं धुवं च । सेसासु मग्गणासु सादि अद्भुवं । एवं सादि-अनादि-धुव अद्भुवाणुगमो समत्तो । सामित्तं ति जं पदं तस्स विहासा पढमाहियारो । ९२३६. कुदो, चोहसमग्गणट्ठाणाणुगयत्थाणमाहारत्तणेण अवद्वाणादो । 'तस्स' अहियारस्स एसा 'विहासा' परूवणा ति एदेण सिस्ससंभालणं कयं । तं जहा - एकिस्से विहत्तिओ को होदि २३७. एदं पुच्छासुतं किमहं बुच्चदे ? सत्थस्स पमाणभावपदुप्पायणटुं । कधं दृष्टि और भव्यजीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके ध्रुवपद नहीं पाया जाता है। यहां पदविशेष अर्थात् जिस मार्गणा में जितने सत्त्वस्थान हैं वे स्थान समुत्कीर्तनासे जान लेना चाहिये । अभव्य जीवोंके अनादि और ध्रुव ये दो पद पाये जाते हैं। शेष मार्गणाओंमें जहां जितने सत्त्वस्थान होते हैं वे सादि और अध्रुव होते हैं । विशेषार्थ - २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान सादि और अनादि दोनों प्रकार के मिध्यादृष्टियोंके पाया जाता है इसलिये इसमें सादि आदि चारों विकल्प बन जाते हैं । किन्तु शेष सत्त्वस्थान अनादि मिध्यादृष्टिके नहीं होते इसलिये उनमें सादि और अध्रुव ये दो विकल्प ही प्राप्त होते हैं । मूलमें जो मतिअज्ञान आदि मार्गणाएं गिनाई हैं वे सादि और अनादि दोनों प्रकारके मिथ्यादृष्टियोंके सम्भव हैं अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है । किन्तु भव्य जीवोंके जब कर्मोंके सम्बन्धकी ध्रुवता नहीं स्वीकार की गई है तब यहां ध्रुव भंग कैसे प्राप्त हो सकता है । यही सबब है कि इनके ध्रुव पदका निषेध किया है । इन मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष सब मार्गणाएं बदलती रहती हैं इसलिये उनके सभी प्रकृतिस्थानोंकी अपेक्षा सादि और अध्रुव ये दो ही पद बतलाये हैं । किन्तु अभव्य मार्गणा सदा एकसी रहती है उसमें परिवर्तन नहीं होता और उसमें एक २६ प्रकृतिक सत्त्वस्थान ही पाया जाता है इसलिये उसमें उक्त स्थानकी अपेक्षा अनादि और ध्रुव ये दो ही पद कहे हैं। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार सादि, अनादि ध्रुव और अध्रुवानुगम समाप्त हुआ । *स्वामित्व नामका जो पद है उसका विवरण करते हैं, यह पहला अर्थाधिकार है। ९२३६. चूंकि यह चौदह मार्गणास्थानोंके अर्थाधिकारोंका मूल आधार है अतः यह पहला अधिकार है । उस अधिकारकी यह विभासा अर्थात् विशेष रूपसे प्ररूपणा की जाती है । इससे शिष्यको सावधान किया गया है । *वह इस प्रकार है— एकप्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? १२३७. शंका - यह पृच्छासूत्र किसलिये कहा है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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