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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ६ ११५. कोधक० पुरिसभंगो। णवरि पुरिस० अविहत्ती अस्थि । एवं माणकसाय०, णवीर कोध० अविहत्ती अस्थि । एवं मायाकसाय०, णवरि माण० अविहत्ती अस्थि । एवं लोभकसाय०, णवरि माय० अविहत्ती अस्थि । अकसाय० चउवीसपयडीणं विहत्ती कस्स ? अण्ण उवसामयस्स । अविहत्ती कस्स ? अण्ण० खवयवस्स । एवं जहाक्खाद० वत्तव्वं ।। तथा जो उपशम सम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणी पर चढ़ा है उसके है। तथा जो जीव क्षपकश्रेणी पर चढ़कर अपगतवेदी हुए हैं उनके मध्यकी आठ कषाय नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका सत्त्व नियमसे नहीं है। शेष ग्यारह प्रकृतियोंका सत्त्व है भी और नहीं भी है। जिस अपगतवेदीने इनका क्षय कर दिया है उसके इनका सत्त्व नहीं है और जिसने क्षय नहीं किया है उसके इनका सत्त्व है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके साथ क्षपक श्रेणी पर चढ़े हुए क्षपक जीवके छह नोकषायोंका क्षय सवेदभागमें ही हो जाता है। ६११५.क्रोधकषायवाले जीवके पुरुषवेदी जीवके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इसके पुरुषवेदकी अविभक्ति भी है। इसी प्रकार मानकषायवाले जीवके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इसके क्रोधकषायकी अविभक्ति भी है। इसी प्रकार मायाकषायवाले जीवके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इसके मानकषायकी अविभक्ति भी है। इसी प्रकार लोभकषायवाले जीवके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके मायाकषायकी अविभक्ति भी है । कषायरहित जीवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्ति किसके हैं ? किसी भी उपशामक जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विना शेष चौबीस प्रकतियोंकी विभक्ति है। चौबीस प्रकृतियोंकी अविभक्ति किसके हैं ? किसी भी एक क्षपक जीवके चौबीस प्रकृतियोंकी अविभक्ति है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवके कहना चाहिये। विशेषार्थ-पुरुषवेदी जीवकी अपेक्षा क्रोधादिकषायवाले जीवोंके जो विशेषता होती है वह ऊपर बतलाई ही है। कषाय रहित अवस्था उपशमश्रेणीके ग्यारहवें गुणस्थानमें और क्षपकश्रेणीके बारहवें गुणस्थानसे होती है। ग्यारहवें गुणस्थानमें चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है। इसलिये कषायरहित उपशामकके चौबीस प्रकृतियों का सत्त्व कहा है। इतनी विशेषता है कि यदि क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणी पर चढ़ता है तो उसके दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं होता है । तथा बारहवें गुणस्थानमें मोहनीयकी एक भी प्रकृतिका सत्त्व नहीं है, अतः कषायरहित क्षपक जीवके सभी प्रकृतियोंका असत्व कहा है। यथाख्यातसंयम भी ग्यारहवें गुणस्थानसे होता है, अतः इसका कथन भी कषाय रहित जीवोंके समान ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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