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________________ गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए कालो २७६ ___६३०६. लेस्साणुवादेण किण्हणील-काउ० अष्टावीस-छव्वीसवि० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि सादिरेयाणि । सत्तावीसविह० ओघभंगो । चञ्चीसनिह० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसूणाणि । वावीसविह० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एकवीसवि० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सागरोवमं देरणं । णवरि, किण्ह-णील. वावीसविहत्ती पत्थि । एकवीसविहत्ती जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । तेउ०पम्म० अहावीस-छव्वीसविह. जह० एगसमओ, उक्क० वे-अहारस सागरो० सादिरेयाणि । सत्तावीसविह० ओघमंगो। चउवीसविह० के० १ जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क वे अहारससागरो• सादिरेयाणि । तेवीस-बावीसवि. जह० अंतोमु० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एकवीसवि० जह० एगसमओ उक्क० बे-अहारससागरो० सादिरेयाणि । सुक्कले० अहावीसविह. ही है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंके विभक्तिस्थानोंका काल त्रस पर्याप्तकोंके समान ही है उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। __६३०६.लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कपोत लेश्यावाले जीवोंमें अट्ठाईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानोंका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है। सचाईस प्रकृतिकस्थानका काल ओघके समान है। चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम तेतीस, कुछ कम सत्रह और कुछ कम सात सागर है। बाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा इक्कीस प्रकृतिकस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक सागर है। इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यावालोंके बाईस प्रकृतिकस्थान नहीं पाया जाता है तथा इकीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पीत और पद्मलेश्यावालोंके अट्ठाईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है । उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक दो और साधिक अठारह सागर है । तथा सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका काल ओघके समान है। चौबीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक दो और साधिक अठारह सागर है। तेईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और बाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है। तथा दोनों स्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इक्कीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। .. शुक्ल लेश्यावालोंके अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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