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________________ १४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ सो सव्वपयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं तिण्हं कसायाणं । सासणसम्माइटीसु जो मिच्छत्तस्स विहत्तिओ सो सव्वपयडीणं णियमा विहत्तिओ। एवं सव्वासिं पयडीणं । सम्मामिच्छादिहीसु मिच्छत्त० जो विहत्तिओ सो अणंताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सेसाणं णियमा विहः । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तबारसक०-णवणोकसाय० । अणंताणु० कोध जो विह० सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०पण्णारसक०-णवणोक० णियमा विहत्तिओ। एवं तिण्हं कसायाणं । एवं सण्णियासो समत्तो। ६१५३. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दविहो णिदेसो, ओघेण ओदेसेण य। तत्थ ओघेण अट्ठावीसंपयडीण विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । एवं मणुसतियस्स पंचिंदिय-पंचिं० पञ्ज०-तस-तसपञ्जत्त-तिणिमण-तिणि वचि-कायजोगि०ओरालिय०-संजदा (संजद)-सुक्कले०-भवसिद्धि०-सम्मादिहि०-आहारए त्ति वत्तव्वं । चाहिये । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा भी जानना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सब प्रकृतियोंकी विभक्तिबाला है। इसीप्रकार सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवालाभी है और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसी प्रकार सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति सम्यग्मिथ्यात्व, पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । इसप्रकार सग्निकर्ष अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६१५३. नाना जीवों की अपेक्षाभंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । इसीप्रकार सामान्य और पर्याप्त मनुष्य तथा मनुष्यणी इन तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन मनोयोगी, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, संयत, शुक्ललेश्यावाले भव्य, सम्यग्दृष्टि और आहारक जीवोंके कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-यहां ऐसी मार्गणाओंका ही ग्रहण किया है जिनमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्ति और अविभक्तिवाले नाना जीव संभव हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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