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________________ गा० २२] वड्ढिविहत्तीए कालाणुगमो ४७१ ६५२६. आदेसेण णेरईएम संखेजभागवड्ढी-हाणि-अवठाणाणमोघमंगो। एवं सत्तपुढवि-तिरिक्व०-पंचितिरिक्खतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज-वेउव्विय:इथि०-णस०-असंजद०-पंचलेस्सिया त्ति वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्व अपज० संखे०भागहाणि० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। अवहि. सव्वद्धा । एवमणुदिसादि जाव अवराइद त्ति , सव्वएइंदिय-सव्व विगलिंदिय-पंचिं०अपज०-पंचकाय-तस अपज०-ओरालियमिस्स०- कम्मइय-मदि-सुद अण्णाण-विहंगजीव संख्यातभागहानि या संख्यातभागवृद्धिको नहीं करते हैं, तब संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। तथा यदि एकके बाद दूसरे और दूसरेके बाद तीसरे आदि नाना जीव संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि निरन्तर करते हैं तो आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक ही संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि होती हैं इसके पश्चात् अन्तर पड़ जाता है । अत: संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । संख्यातभाग वृद्धिके समान संख्यातगुणहानिका जघन्यकाल एक समय जानना चाहिये। किन्तु जब क्षपकश्रेणीमें नाना जीव प्रति समय ग्यारह विभक्तिस्थानसे पांच विभक्तिस्थानको या दो विभक्तिस्थानसे एक विभक्तिस्थानको प्राप्त होते रहते हैं तब संख्यातगुणहानिका उत्कृष्टकाल संख्यातसमय प्राप्त होता है, क्योंकि इसप्रकार संख्यातगुणहानि निरन्तर संख्यात समय तक ही हो सकती है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानका सर्वकाल कहनेका कारण यह है कि ऐसे अनन्त जीव हैं जिनके सर्वदा अवस्थित बिभक्तिस्थान बना रहता है। ऊपर और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी ओघके समान व्यवस्था बन जाती है। ६५२६. आदेशसे नारकियोंमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थानका काल ओघके समान है। इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें और सामान्य तियंच, पंचेन्द्रियतियच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यच, योनीमती तियंच, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, असंयत तथा कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवोंके काल कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका काल जो ओघसे कहा है वह इन मार्गणाओंमें भी बन जाता है। किन्तु इन मार्गणाओंमें संख्यातगुणहानि नहीं होती है। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें संख्यातभागहानिका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग है। तथा अवस्थित विभक्तिस्थानका काल सर्वदा है। इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंके तथा सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचो स्थावर काय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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