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________________ गा० २२ भुजगारविहत्तीए कालो सगुकस्सहिदी। अणुद्दिसादि जाव सवढे त्ति अप्पदर जहण्णुक्क० एगसमओ। अवछिद० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० सगसगउकस्सहिदी। ६ ४३२. एइंदिय० अप्पदर० जहण्णुक० एकसमओ। अबहिद० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियष्टा । बादरसुहुम-एइंदियाणमेवं चेव । णवरि अवहिद० उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी। बादरेइंदियपज० अप्पदर० के० १ जहएणुक्क० एयसमओ। अवडिद० जह० एयसमओ, उक्क० संखेजाणि वाससहस्साणि । बादरेइंदियअपज-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्त-विगलिंदियपज० (अपज०)-पंचिं० अपज०पंचकायाणं बादर-अपज० तेसि सहुम पजत्तापजत्त-तस अपज-ओरालियमिस्स०वेउव्वियमिस्सकायजोगीणं पंचिं० तिरिक्ख अपजत्तभंगो। विगलिंदिय-विगलिंदियपज०-पंचकायाणं बादरपज० बादरेइंदियपज्जत्तभंगो। पंचिंदिय-पंचिं० पज०-तसतसपजत्ताणं भुज. अप्पदर० ओघभंगो। अवडिद० जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी। है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक प्रत्येक स्थानमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। ६४३२. एकेन्द्रियोंमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अनन्तकाल है जो असंख्यत पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके अल्पतर और अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्टकाल इसीप्रकार कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थितका उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में अल्पतरका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, विकलेन्द्रिय अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय बादर अपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय सूक्ष्म पर्याप्त, पांचों स्थावर काय सूक्ष्म अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकों के समान अल्पतर और अवस्थितका काल जानना चाहिये । विकलेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय पर्याप्त, पांचों स्थावर काय बादर अपर्याप्त जीवोंके अल्पतर और अवस्थितका काल बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान जानना चाहिये। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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