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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ४३३. जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचि० भुज० अप्प० ओघभंगो । अवष्टि. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । कायजोगि-ओरालिय. भुज० अप्पदर० ओघभंगो । अवष्टि जह० एयसमओ, उक्क० सगहिदी। आहार० अवहि. जह० एगसमओ, उक्क. अंतोमुहुत्तं । एवमकसाय०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद० वत्तव्वं । आहारमिस्स० अवष्टि० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमुवसम-सम्मामि० । णवरि उवसम० अप्प० जहण्णुक्क० एयसमओ। कम्मइय० अप्पदर० के० ? जहण्णुक० एयसमओ । अवष्टि० जह० एगसमओ, उक्क० तिणि समया। वेउव्विय० भुज० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगसमओ । अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । ४३४. वेदाणुवादेण इत्थि-पुरिस-णबुंसयवेदेसु भुज० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगसमओ, अवहि० जह० एगसमओ, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदी। अवगद० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगसमओ, अवहिद० जह• एगसमओ उक्क० अंतोमुहुत्तं । कोध-माण ६४३३. योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। काययोगी और औदारिक काययोगी जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका काल ओघके समान है । तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। आहारक काययोगमें अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । इसीप्रकार कषाय रहित जीवोंमें तथा सुक्ष्मसांपरायिक संयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कथन करना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगमें अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि उपशमसम्यक्त्वमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। कार्मणकाययोगियोंमें अल्पतरका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । वैक्रियिककाययोगियोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६४३४. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अपगतवेदमें अल्पतरका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अवस्थितका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान, संज्वलनमाया और संज्वलन लोभमें भुजगार और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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