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________________ २६० जला सहिदे कला पाहुडे [ पडविती २ देणाणि | बावीसविह० के० ? जह० एस० उ० अतो बहुतं । एकवीस विह० aro ? जह० पलिदोषमस्स असंखेजदिभागो, उक्क० तिण्णि पलिदोषमाणि । पंचिंदियतिरिक्-पंचिदियतिरिक्खपन० अट्ठावीस-छब्बीसविह० के ० ? जह० एगसमओ उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वको डिपुधतेणज्भहियाणि । सेसाणं तिरिक्खोंघभंगो | पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु अट्ठावीस - सत्तावीस-छब्बीस - चउवीस० पंचिदिवतिरिक्खमंगो । पंचिदियतिरिक्खअपज० अड्डावीस- सत्तावीस-छब्बीसविह० केव० १ जह० एगसमओ । उक्क० अंतोमुहुतं । एवं मणुस्सअपज - बादरेइंदिय अपज० -सुहुमपञ्ज० - अपज०-विगलिंदियअपज० पंचिदियअपज० पंचकाय बादर अपज - सुहुमपअ ० अपज०-तस अपज० वत्तव्यं । उत्कृष्ट काळ देशोन तीन फल्य है । बाईस विमक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इक्कीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्टकाल तीन पल्य है । पंचेन्द्रिय वियंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त जीवोंके अट्ठाईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिपृथक्वसे अधिक तीन पल्य है । उक्त दोनों प्रकारके तिर्थंचोंके शेष सम्भव प्रकृतिकस्थानोंका काळ ओषके समान समझना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्थंच योनिमती जीवों में अद्वाईस, सत्ताईस, छब्बीस और चौबीस प्रकृतिकस्थानोंके कालका कथन पंचेन्द्रियतिर्थत्रों में उक्त स्थानोंके कहे गये कालके सम्मान करना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तजीवों में अट्ठाईस, सचाईस, और छब्बीस प्रकृतिक स्थानोंका काल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, बादर पकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, विकलेन्द्रिय अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों बादरकाय अपर्याप्त पांचों सूक्ष्मकाय पर्याप्त, पांचों सूक्ष्मकाय अपर्याप्त और त्रसकाय अपर्याप्त इन जीवोंके भी अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानोंका काल कहना चाहिये । विशेषार्थ - २८, २७, और २६ विभक्तिस्थानके जघन्य काल एक समयका खुलासा जिस प्रकार नरकगतिके कथन के समय कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये । तथा अन्य मार्गणास्थानों में जहां इन विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय बतलाया हो वहां भी इसी प्रकार खुलासा कर लेना चाहिये। हम पुनः पुनः इसका निर्देश नहीं करेंगे । तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करनेवाले किसी एक जीवके उपशमसम्यक्त्व होकर २८ विभक्तिस्थानकी प्राप्ति हुई । पुनः मिध्यात्वमें जाकर जिसने सम्यग्मिथ्यात्वकी बनेनाका प्रारम्भ किया और अतिदीर्घकाल तक जो तिर्यंचगतिमें ही उसकी उद्वेलना करता हुआ तीन पल्यकी आयुबाले तिथेचोंमें उत्पन्न हुआ और वहां सम्यक्त्व प्राप्तिके योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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