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________________ ८६ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए जहरणविहत्तिश्रादि अणुगमो पादेकं सब्वपयडीपरूवणा सव्वविहत्ती, पयडीणं सव्वासिं समूहस्स पयडीहितो कधंचि पुधभूदस्स परूवणा उक्कस्सविहत्ती, तदो ण पुणरुत्तदोसो। एवं णेदव्वं जाव अणाहारएत्ति । ___६ १०७. जहण्णविहत्ति-अजहण्णविहत्तियाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वजहण्णपयडीओ जहण्णविहत्ती, तदुवरि अजहण्णविहत्ती । एवं पेदव्वं जाव अणाहारएत्ति । ६१०८. सादि-अणादि-धुव-अद्धवाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसाय-विहत्ति० किं सादिया किमणादिया किं धुवा किम वा ? अणादिया धुवा अर्धवा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० किं सादिया४ ? सादि-अद्भुवा । अणादि-धुवं णत्थि । समाधान-इन दोनों में परस्पर भेद है, क्योंकि अलग अलग सर्वप्रकृतियोंकी प्ररूपणाको सर्वविभक्ति कहते हैं और प्रकृतियोंसे कथंचित् भिन्नभूत समस्त प्रकृतियोंके समूहकी प्ररूपणाको उत्कृष्टविभक्ति कहते हैं, अतः सर्वविभक्ति और उत्कृष्टविभक्तिका पृथक् पृथक् कथन करने पर पुनरुक्त दोष नहीं आता है। गतिमार्गणासे लेकर अनाहारकमार्गणा तक उत्कृष्टविभक्ति और अनुत्कृष्टविभक्तिका कथन इसी प्रकार करना चाहिये। ६१०७. जघन्यविभक्ति और अजघन्यविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा सबसे जघन्य प्रकृतियां जघन्यविभक्ति है और इसके ऊपर अजघन्यविभक्ति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। ६१०८.सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषाय और नौ नोकषाय ये विभक्तियां क्या सादि हैं, क्या अनादि हैं, क्या ध्रुव हैं, क्या अध्रुव हैं ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव हैं । सत्त्व व्युच्छित्ति होने तक निरन्तर रहती हैं, इसलिये अनादि हैं। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव हैं । इन प्रकृतियोंमें सादिभेद नहीं होता है, क्योंकि सत्त्व व्युच्छित्तिके बाद इनका पुनः सत्त्व नहीं होता। सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व विभक्तियां क्या सादि हैं, क्या अनादि हैं, क्या ध्रुव हैं, क्या अध्रुव हैं ? सादि और अध्रुव हैं। इनमें अनादि और ध्रुवपद नहीं है। प्रथमोपशमसम्यक्त्व होनेके अनन्तर ही इन दो विभक्तियोंका सत्त्व होता है, अतः ये सादि और अध्रुव हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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