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________________ अवलास हिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ दुसमऊणदोआलि०, उक० अंतोमु० । अवद्वि० जह० एगसमओ, उक्क० बे-समया । उवसम० अ० णत्थि अंतरं । अवधि जहण्णुक्क० एयसमओ । सण्णि० पुरिसंभंगो। णवरि अप० जह० दुसमऊणदोआवलि० । आहारि० भुज० अप्प० जह० अंत दुसमऊण- दोआवलि०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो । अवद्वि० ओघभंगो । एवमेगजीवेण अंतरं समत्तं । १४४३. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुममेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अवदि० णियमा अत्थि, सेसपदाणि भयणिजाणि । एवं सचसु पुढवीसु, तिरिक्ख० - पंचिदियतिरिक्ख- पांच० तिरि० पज०-पंचिं० तिरि० जोणिणी-मणुसतिय देव भवणादि जाव उवरिमगेवजं ति पंचिदिय पंचि०पज० तस-तसपञ्ज ० ०-पंचमण० - पंचवचि० - कायजोगि०- ओरालिय० - वेउब्विय० - तिण्णिवेद - चत्तारिकसाय - असंजद- चक्खु०-अचक्खु ० छलेस्सा० भवसिद्धि ०-सणि० - आहारि त्ति वत्सव्वं । ४०२ समय है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अल्पतरका अन्तरकाल नही पाया जाता है । तथा अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । संज्ञी मार्गणामें पुरुषवेदके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल दो समय कम दो आवली प्रमाण है । आहारक जीवोंमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और दो समय कम दो आवली प्रमाण है । उत्कृष्ट अन्तरकाल दोनोंका अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है । इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल समाप्त हुआ । १४४३. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है ओघ - निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देश की अपेक्षा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं अर्थात् भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव कभी रहते भी हैं और कभी नहीं भी रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंमें तथा सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंमें, सामान्य देवोंमें और भवनवासियोंसे लेकर उपरिम मैवेयक तक के देवोंमें तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी. पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छह लेश्यावाले, भव्य, सज्ञी और आहारक जीवोंमें कहना चाहिये । अर्थात् इन मार्गणाओंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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