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________________ - जयभवलासहिदे कसायपाहुडे पयडिविहत्ती२ * बावीससंतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा । ६४००. कुदो ? चारित्तमोहणीय-अणियट्टीकालादो संखेजगुणम्मि दंसणमोहणीय-आणियट्टिकालम्मि संचिदजीवाणं पि संखेज्जगुणत्तं पडि विरोहाभावादो। अट्टवस्सहिदिसंतकम्मे चेष्टिदे तदो प्पहुडि जाव सम्मत्तक्खवणद्धाचरिमसमओ त्ति ताव वावीसविहत्तियकालो । एसो चारित्तमोहक्खवग-अणियट्टी-अद्धादो संखेजगुणो त्ति कधं णव्वदे ? एवं मा जाणिजदु, किंतु तेरसविहत्तियकालादो एसो कालो संखेजगुणो त्ति णव्वदे । कत्तो ? पुव्विल्लकाल-अप्पाबहुगादो । चारित्तमोहक्खवणं पट्टवेत. जीवहितो दंसणमोहक्खवणं पडवेंतजीवा संखेजगुणा त्ति ण घेत्तव्वं, उभयत्थ अठठुत्तरसदजीवे मोत्तूण एत्तो बहुआणं चडणासंभवादो । ण च पट्टवणकालस्स थोवबहुत्त * तेरह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ___४००.शंका-तेरह विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे बाईस विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात. गुणे क्यों हैं ? समाधान-चूंकि चारिमोहनीयके अनिवृत्तिकरणसंबन्धी कालसे दर्शनमोहनीयका अनिवृत्तिकरणकाल संख्यातगुणा है, इसलिये इसमें संचित हुए जीव भी संख्यातगुणे होते हैं इस कथनमें कोई विरोध नहीं है। शंका-स्थितिका पुनः पुनः अपकर्षण करते हुए जब सत्तामें स्थित कर्मोंकी स्थिति आठ वर्ष प्रमाण रह जाती है उस समयसे लेकर सम्यक्प्रकृतिके क्षपणकालके अन्तिम समय तक बाईस विभक्तिस्थानका काल होता है। यह काल चारित्रमोहनीयके क्षपक जीवके अनिवृत्तिकरणके कालसे संख्यातगुणा है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-इस प्रकारका ज्ञान भले ही मत होओ किन्तु तेरह विभक्तिस्थानके कालसे बाईस विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है यह तो जाना ही जाता है । शंका-किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-पूर्वोक्त कालविषयक अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। यहां पर चारित्रमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करनेवाले जीवोंसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करनेवाले जीव संख्यातगुणे होते हैं ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि दोनों जगह एक सौ आठ जीवोंसे अधिक जीव दर्शनमोहनीय या चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये एक साथ आरोहण नही करते है । यदि कहा जाय कि चारित्रमोहनीयके क्षपणाके प्रारम्भ कालसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भकाल अधिक होगा इसलिये दोनोंके कालमें विशेषता होगी सो बात भी नहीं है, क्योंकि, दोनों प्रस्थापककालों में संख्यात समयका नियम देखा जाता है। यदि कहा जाय कि जघन्य अन्तर और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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