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________________ गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए कालो .: *कालो। ६२६८. अहियारसंभालणवयणमेदं । तत्थ कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओपेण आदेसेण य । तस्थ ओषेण एक्किस्से विहत्तिओ केबचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । तं जहा-इगिवीससंतकम्मिओ चेव खवणाए अब्भुटेदि, सुद्धसदहणेण विणा चारित्तमोहक्खवणाणुववत्तीदो। तदो सो खवगसेढिमभुष्ट्रिय अणियहिअद्धाए संखेजे भागे गंतूण तदो अकसाए खवेदि । पुणो अंतोमुहुतमुवरि गंतूण थीणगिद्धीतियणिरयगइ-तिरिक्खगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवी [तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुन्वी] एइंदिय बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादि-आदावुजोव-थावर-सुहुम-साहारणसरीराणि एदाओ सोलसपयडीओ खवेदि । तदो उपरि अंतोमुहुर गंतूण मणपजवणाणावरणीय-दाणंतराइयाणं सम्वधादिबंधं देसघादिं करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुत्वं मंतूण ओहिणाणावरणीय-ओहिदसणावरणीय-लाहंतराइयाणं सब्वधादिबंधं देसघादि करेदि । तदो उवरि अंतोमुहुरा गंतूण सुदणाणावरणीय-अचक्खुदंसणावरणीय-भोगंतराइयाणं सव्वधादिवंध देसधादिं करेदि । तदो उवरि अंतोमुडुत्तं गंतूण चक्खुदंसणावरणीयरस सव्वधादिबंधं * अब कालानुयोगद्वारका अधिकार है। ....६२६८. कालो' यह वचन अर्थाधिकारका निर्देश करनेके लिए दिया है। . कालानुयोगद्वारकी अपेक्षा ओघ और आदेशके भेदसे निर्देश दो प्रकारका है। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा एक विमक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। . . . .. .: उसका खुलासा इसप्रकार है-जिसके चारित्रमोहनीयकी इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्ता विद्यमान है वही चारित्रमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है, क्योंकि क्षायिकसम्यग्दर्शनके विना चारित्रमोहकी क्षपणा नहीं बन सकती। इसप्रकार चारित्रमोहकी इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव क्षपकश्रेणीपर आरोहण करके अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यातवें भागको व्यतीत करके अनन्तर अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण चतुष्कका क्षय करता है। अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बिताकर स्त्यानगृद्वित्रिक, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तियंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति,द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रिवजाति, चतुरिन्द्रियजाति, आताप, उपोत, स्थावर, सूक्ष्मशरीर और साधारणशरीर इन सोलह प्रकृतियोंका क्षय करता है। पुनः अन्तर्मुहूर्त बिताकर मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तरायके सर्वघातिबन्धको देशघातिरूप करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त विताकर अवधिशानावरण; अवधिदर्शनावरण और लाभान्तरायके सर्वघातिबन्धको देशघातीरूप करता है। इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त विताकर श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तरायके सर्वघातिबग्धको देशघातिरूप करता है । इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त बिताकर चक्षुदर्शना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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