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________________ गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए कालो २५५ सत्तावीसविहत्तीए जहण्णकालस्स पमाणमेगसमओ । * उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज दिभागो। ६२६२. कुदो ? अहावीससंतकम्मियमिच्छादिष्टिणा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालेण सम्मत्ते उव्वेल्लिदे सत्तावीसविहत्ती होदि । तदो सव्वुक्कस्सेण पलिदोबमस्स असंखेजीदभागमेत्तेण कालेण जाव सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लेदि ताव सत्तावीसविहत्तीए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तवुक्कस्सकालुवलंभादो। * अट्ठावीसविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण अंतोमुहुत्तं। ६२६३. कुदो ? छव्वीससंतकम्मियमिच्छाइष्टिम्हि उवसमसम्मत्तं घेत्तूण उप्पाइदअहावीससंतकम्मम्मि सब्वजहण्णमतोमुहुत्तमहावीससंतकम्मेण सह अच्छिय अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय उप्पाइदचउवीससंतकम्मम्मि अठ्ठावीसविहत्तियस्स अंतोमुहुत्तमेत्तजहण्णकालुवलंभादो। * उक्कस्सेण वे-छावहि-सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६२६४. तं जहा, एको मिच्छाइट्टी उवसमसम्मत्तं घेतूण अहावीसविहत्तिओ जादो। क्त्वको प्राप्त करके चूंकि वह अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होजाता है इसलिये सत्ताईस प्रकृतिक स्थानके जघन्य कालका प्रमाण एक समय है यह सिद्ध होता है। * सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। $२९२.शंका-सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग कैसे है ? समाधान-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके द्वारा सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करनेपर सत्ताईस प्रकृतिक स्थानवाला होता है। तदनन्तर वह जीव जब तक सबसे उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यगमिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना करता है तबतक उसके सत्ताईस प्रकृतिक स्थान पाया जाता है। अतः सत्ताईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। * अहाईस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है। ६२१३. शंका- अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कैसे है ? समाधान-छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवने उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त किया। अनन्तर सबसे जघन्य अन्तमुहूर्त काल तक अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तासे युक्त रहनेके पश्चात् अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके चौबीसप्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त की। तब उसके अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। * अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर है । २६४. वह इस प्रकार है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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