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________________ गा० २२] उत्तरपयडिविहत्तीए कालाणुगमो १०७ १०७ अंतोमुद्दुत्तं । एवं विगलिंदियअपजत्ताणं, णवरि छब्बीसंपयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दा०, अहावीसपयडीणं विहत्ति० उक्क० अंतोमुहुतं ।। ६१२५. पचिंदिय-पंचिं०पजत्तएसु छब्बीसंपयडीणं विहत्ति० जह० खुद्दाभवगहणमंतोमुहुत्तं, उक्क० सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं । सम्मत्त-सम्मामि०विहत्ति० जह० एगसमओ, उक० बे छावद्विसाकोंके उक्त प्रकृतियोंका काल जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके छब्बीस प्रकतियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त न होकर खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है। और अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-द्वीन्द्रियकी उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष त्रीन्द्रियकी उनचास दिनरात और चतुरिन्द्रियकी छह महीना है। अब यदि कोई अन्य इन्द्रियवाला जीव विकलत्रयमें उत्पन्न होकर निरन्तर इसी विकलत्रय पर्यायमें उत्पन्न होता रहे और मरता रहे तो संख्यात हजार वर्ष तक वह विकलत्रय पर्यायमें रह सकता है। इसी अपेक्षासे ऊपर सामान्य और पर्याप्त विकलत्रयोंके सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है। तथा जघन्य काल कहते समय सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका एक समय और छब्बीस प्रकृतियोंका सामान्य विकलत्रयोंके खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और पर्याप्त विकलत्रयोंके अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलनामें एक समय शेष रहने पर अन्य इन्द्रियवाला जीव यदि विवक्षित विकलत्रयमें उत्पन्न हुआ तो उसके दोनों प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा सामान्य विकलत्रयका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है और पर्याप्त विकलत्रयका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इन दोनोंके शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल क्रमसे खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त घटित हो जाता है । लब्ध्यपर्याप्तक विकलत्रयका जघन्य काल खुहाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । रही सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य कालकी बात सो ऊपर जिसप्रकार सामान्य और पर्याप्त विकलत्रयके इनके जघन्य काल एक समयका खुलासा किया है उसी प्रकार इनके भी उक्त दोनों प्रकृतियोंके जघन्य कालका खुलासा कर लेना चाहिये। ...६१२५ पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तक जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल क्रमसे खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है। तथा दोनोंके छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल क्रमसे पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक हजार सागर और सौ सागर पृथक्त्व है। तथा दोनोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एकसौ बत्तीस सागर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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