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________________ गा० २२ ] मूलपय डिविहत्तीए कालो २६ पंचिदियतिरिक्खपजत्त - पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुद्दत्तं अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल क्रमशः खुद्दाभवगहण, अन्तर्मुहूर्त और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल प्रत्येकका पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय निर्थचों में पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकारके तिर्थंचों का ग्रहण हो जाता है, अतएव उनकी अपेक्षा जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण कहा है। पर पर्याप्त जीवोंकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त से कम नहीं है, अतः पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योमिमतियोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा उक्त तीनों प्रकार के जीवोंकी पर्यायको प्राप्त होकर प्रत्येकका तिर्थंचगतिमें रहनेका उत्कष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । अर्थात् पंचेन्द्रिय तिर्थंचों में जीव पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य काल तक रहता है, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तोंमें सेंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य काल तक रहता है और योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यच में पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य काल तक रहता है । यथा कोई एक जीव तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ और वहां संज्ञी स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियों में क्रमशः आठ आठ पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमण करके अनन्तर इसीप्रकार असंज्ञी स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियों में आठ आठ पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमण करके पश्चात् लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हुआ । वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर पश्चात् असंज्ञी पर्याप्त होकर वहां स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेदके साथ क्रमशः आठ आठ पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमण करके पुनः संज्ञी स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदियों में आठ आठ पूर्वकोटि और पुरुषवेदियों में सात पूर्वकोटि काल तक रह तीन पकी आयु के साथ उत्तम भोगभूमि में रहकर देव हो जाता है । इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य काल प्राप्त हो जाता है । पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंचों में काल कहते समय ऊपर बीचमें जो लब्ध्यपर्याप्त भवका ग्रहण कराया गया है उसे नहीं कराना चाहिये, क्योंकि, पर्याप्तकता के साथ लब्ध्यपर्याप्तकताका विरोध है । इसलिये संज्ञी और असंज्ञी जीवोंमें तीनों वेदोंके साथ जो दो दो बार उत्पन्न कराया है ऐसा न करके एक बार ही उत्पन्न कराना चाहिये और अन्तके वेदमें आठ पूर्वकोटिके स्थान में सात पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमणका विधान करना चाहिये । इसप्रकार करने से पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य होता है । योनिमती पर्याप्त तिर्यंचों में असंज्ञीकी अपेक्षा आठ और संज्ञीकी अपेक्षा सात पूर्वकोटियों का ही विधान करना चाहिये, क्योंकि, इनके स्त्रीवेद के अतिरिक्त दूसरा वेद नहीं पाया जाता है । इसप्रकार योनिमती पर्याप्त तियचों में परिभ्रमणका काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्राप्त होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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