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Greenerated Faायपाहुडे
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एवं सादि- अणादिधुत्र - अदुवाणुगमो समत्तो ।
४७. सामित्तानुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयवित्त कस्स १ अण्णदरस्स संतकम्मियस्स | अविहत्ती कम्स ? अण्णदरस्स मोहसंतकम्मस्स । एत्रमध्पणो पदाणं णेदव्वं जाव अणाहारएत्ति । एवं सामिचं समत्तं ।
[ पयडिविहत्ती २
अनादि और ध्रुव पद ही होता है यह स्पष्ट ही है । अपगतवेदी, अकषायी, सभ्यदृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, और अनाहारक आदि मार्गणाएँ ऐसी हैं जिनमें मोहनीय कर्मका सद्भाव और मोहनीय कर्मका अभाव दोनों पाये जाते हैं । तथा ये मार्गणाएं सादि हैं, अतः इनमें मोहनी के सद्भावकी अपेक्षा सादि और अध्रुव ये दो पद ही होते हैं। पर इन मार्गणाओं में स्थित जिन जीवोंके मोहनीय कर्मका अभाव हो गया है उनके पुनः मोहनीय कर्म नहीं पाया जाता । अतः इस मार्गणाओंमें मोहनीय कर्मके अभाव की अपेक्षा सादि और . ध्रुव ये दो पद होते हैं। यहां ध्रुवपद स्थायित्व की अपेक्षासे कहा है । इतनी विशेषता है कि समुद्घातगत सयोगिकेवलियोंके अनाहारकत्व सादि और सान्त है, अतः अनाहारक जीवोंके मोहनीयकी अविभक्तिका अध्रुव पद भी होता है । इनसे अतिरिक्त शेष मार्गणाओं में नरकगति आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें मोहविभक्ति ही है और यथाख्यातसंयत आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें मोहविभक्ति और मोह अविभक्ति दोनों हैं । इनमें पूर्वोक्त व्यवस्थाके अनुसार सादि आदि पद जान लेना चाहिये ।
इस प्रकार सादि अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगम समाप्त हुआ ।
४७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयविभक्ति किसके है ? जिसके मोहनीय कर्मका सत्त्व पाया जाता है ऐसे किसी भी जीवके मोहनीयविभक्ति है । मोहनीय-अविभक्ति किसके है ? जिसके मोहनीय कर्मके सत्वका नाश हो गया है ऐसे किसी भी जीवके मोहनीयअविभक्ति है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जहां दोनों या एक जितने पद संभव हों उनका कथन कर लेना चाहिये ।
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विशेषार्थ - गुणस्थानों की अपेक्षा मोहनीय कर्म ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है और आगे उसका असत्त्व है । अतः ओघसे मोहनीय विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले दोनों प्रकारके जीव बन जाते हैं । जब आदेशकी अपेक्षा विचार करते हैं तो वहां भी जिस मार्गणा में ग्यारहवेंसे नीचेके ही गुणस्थान संभव हैं वहां मोहविभक्ति ही होती है । और जिस मार्गणा में ग्यारहवेंसे आगेके गुणस्थान भी संभव हैं वहां मोहविभक्ति और मोह-अविभक्ति दोनों होती हैं ।
इस प्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
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