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________________ ८१ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए प्रणियोगद्दाराणि उच्चारणाइरिएहि परूविदाणि । जइवसहाइरिएण पुण एक्कारस चेव परूविदाणि, दोण्हं वक्खाणाणमेदेसि कथं ण विरोहो ? णस्थि विरोहो, दव्वष्टिय-पञ्जवट्ठियणए अवलंबिय पयट्टाणं विरोहाभावादो । जइवसहाइरियो जेण संगहणओ तेण तस्स अहिप्पारण एकारस अणिओगद्दाराणि होति । FEE. कमणियोगदारं कम्मि संगहियं? बुच्चदे, समुक्त्तिणा ताव पुध ण वत्तव्वा सामित्तादिअणियोगद्दारेहि चेव एगेगपयडीणमत्थित्तसिद्धीदो अवगयत्थपरूवणाए फलाभावादो। सव्वविहत्ती णोसव्वविहत्ती उकस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहण्णविहत्ती अजहण्णविहत्तीओ च ण वत्तव्वाओ, सामित्त-सण्णियासादिअणिओगद्दारेसु भण्णमाणेसु अवगयपयडिसंखस्स सिस्सस्स उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णपयडिसंखाविसयपडिबोहुप्पत्तीदो। सादि-अणादि-धुव-अद्भुवअहियारा वि ण वत्तव्वा कालंतरेसु परूविज्ज स्पर्शन, काल, अन्तर, भावानुगम और अल्पबहुत्व इसप्रकार ये चौवीस अनुयोगद्वार कहे हैं, पर यतिवृषभ आचार्यने ग्यारह ही अनुयोगद्वार कहे हैं, अतः इन दोनों व्याख्यानोंका परस्परमें विरोध क्यों नहीं है ? समाधान-यद्यपि यतिवृषभ आचार्यने ग्यारह और उच्चारणाचार्यने चौबीस अनुयोगद्वार कहे हैं तो भी इनमें परस्परमें विरोध नहीं है, क्योंकि, यतिवृषभ आचार्यका कथन द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है और उच्चारणाचार्यका कथन पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है, अतः उक्त दोनों कथनांमें कोई विरोध नहीं है । चूँकि यतिवृषभ आचार्यने संग्रहनयका आश्रय लिया है इसलिये उनके अभिप्रायानुसार ग्यारह अनुयोगद्वार होते हैं । ९. अब किस अनुयोगद्वारका किस अनुयोगद्वारमें संग्रह किया है इसका कथन करते है-यद्यपि समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारमें प्रकृतियोंका अस्तित्व बतलाया जाता है तो भी उसे अलग नहीं कहना चाहिये, क्योंकि स्वामित्व आदि अनुयोगोंके कथनके द्वारा ही प्रत्येक प्रकृतिका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। अतः जाने हुए अर्थका कथन करनेमें कोई फल नहीं है। तथा सर्वविभक्ति, नोसर्व विभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, और अजघन्यविभक्तिका भी अलगसे कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि, स्वामित्व, सन्निकर्ष आदि अनुयोगद्वारोंके कथनसे जिस शिष्यने प्रकृतियोंकी संख्याका ज्ञान कर लिया है उसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, तथा जघन्य और अजघन्य प्रकृतियोंकी संख्याका ज्ञान हो ही जाता है। तथा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अधिकारोंका भी पृथक् कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि काल अनुयोगद्वार और अन्तर अनुयोगद्वारके कथन करने पर उनका ज्ञान हो जाता (१) संखवि-स०, प्र०, मा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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