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________________ गा० २२) पयडिट्ठाणविहचीए अप्पाबहुआणुगमो * एक्कारसण्हं संतकम्मविहत्तिया विसेसाहिया । ३६६. कुदो ? माणतिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालसंचिदजीवेस्तिो छण्णोकसायक्ववणकालेण माणतिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालादो विसेसाहिएण संचिदएकारसविहत्तियाण-मद्धाबहुत्तबलेण बहुत्तसिद्धिदा। माणतिण्णिासंगहकिट्टीवेदयकालादो कोधतिण्णिसंगहाकहीवेदयकालो संखेज्जावलियाहि अब्भाहओ । कोधतिण्णिसंगहकिट्टीवेदयकालादो किटीकरणद्धा संखेजावलियाहि अन्भहिया। तत्तो अस्सकण्णकरणद्धा संखेजावलियाहि अब्भहिया। तत्तो छण्णोकसायक्खवणद्धा संखेजावलियाहि अब्भहिया । एदाओ चत्तारि संखेजावलियाओ मिलिदण तिण्णिसंगहाकहीवेदयकालस्स संखेजदिभागमेत्ताओ चेव होंति । तेण तिण्हं विहात्तिएहिंतो एकारसण्हं विहत्तिया विसेसाहिया त्ति भणिदं । तिहं विहत्तियाणमुवरि चउण्णं विहात्तिया किण्ण पादिदा ? ण, तिण्हं विहत्तियकालादो संखेजगुणम्मि चउण्हं विहत्तियकालम्मि संचिदजीवाणं संखेज * तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं। ३२६. शंका-तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक क्यों हैं ? समाधान-क्योंकि मानकी तीन संग्रहकृष्टियों के वेदक कालसे छह नोकषायोंका क्षपणकाल विशेष अधिक है। अतः मानकी तीन संग्रहकृष्टियोंके वेदककालमें जितने जीवोंका संचय होता है उससे छह नोकषायोंके क्षपणकालमें संचित हुए ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव संचयकालके अधिक होनेसे बहुत सिद्ध होते हैं । मानकी तीन संग्रहकृष्टियों के वेदककालसे क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंका वेदककाल संख्यात आवली अधिक है । क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंके वेदककालसे कृष्टिकरणका काल संख्यात आवली अधिक है। कृष्टिकरणके कालसे अश्वकर्णकरणका काल संख्यात आवली अधिक है । अश्वकर्मकरणके कालसे छह नोकषायोंका क्षपणकाल संख्यात आवली अधिक है । ये चारों (विशेषाधिकरूप ) संख्यात आवलियां मिलकर तीन संग्रह कृष्टियोंके वेदककालके संख्यातवें भागमात्र ही होती हैं, इसलिये तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे ग्यारह विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं यह कहा है। __ शंका-तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंके अनन्तर चार विभक्तिस्थानवाले जीव क्यों नहीं कहे ? समाधान-नहीं, क्योंकि तीन विभक्तिस्थानके कालसे चार विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है, अतः संख्यातगुणे कालमें संचित हुए जीव तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे संख्यातगुणे ही होंगे। इसलिये यहां तीन विभक्तिस्थानवाले जीवोंके कथनके अनन्तर चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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