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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो १६६ दिसि सव्व-पय० विह० सम्म०-सम्मामि० अविह० केवडियं खेतं फोसिदं ? लोग० असंखेज्जदिभागो, अद्भुह अह णव चोदसभागा वा देसूणा । अणंताणु०चउक्क० अविह० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अद्भुछ अह चोदसभागा वा देसूणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारेत्ति सव्वपय० विह० दंसणतिय-अणंताणु० ४ अविह० के० खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ट चोदसभागा वा देसूणा । आणद-पाणद-आरणच्चुद० सव्वपयडि. विह० सत्तपयडि० अविह० के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, छ चोदसभागा वा देसूणा। - ६१८०.पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज्ज० सव्वपय० विह० सम्म०-सम्मामि० अविह० के० खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ट चोदसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । सेस० अविह० केवलिभंगो,णवरि अणंताणुबंधि० अविह० अह चोद्दसभागा वा देसूणा । एवं पंचमण०-पंचवचि०-इत्थि-पुरिसवेदेसु वत्तव्वं । णवरि, चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंने और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन, आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले भवनवासी आदि देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन भाग और आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सनत्कुमार स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और दर्शनमोहनीयकी तीन तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और सात प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। ६१८०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और सम्यक्प्रकृति तथा सम्यमिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा शेष प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले उक्त चार प्रकारके जीवोंका स्पर्श केवलिसमुद्धातपदके समान है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले उक्त चार प्रकारके जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार पांचों २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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