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________________ गा० २२ ] भुजगारविहत्तीए समुक्तित्तणा ३८५ उवरिमगेवज्जे सि-पंचिंदिय पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-वेउव्विय तिण्णिवेद०-चत्तारि कसाय-असंजद-चक्खु०-अचक्खु.. छलेस्स-भवसि०-सण्णि-आहारि त्ति वत्तव्यं । पंचिं० तिरिक्खअपज्ज० अस्थि अप्पदर-अवष्टिदविहत्तिया । एवं मणुसअपज्ज०-अणुद्दिसादि जाव सबह सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं. अपज्ज-पंचकाय-तसअपज्ज० ओरालियमिस्स०- . देउव्यियमिस्स-कम्मइय०-अवगद०-मदि- सुद - अण्णाण - विहंग आभिाण ०-सुद०. ओहि०-मणपज्ज०-संजद-सामाइयच्छेदो०-परिहार०-संजदासंजद-ओहिंदंस० सम्मादि. खड्य-वेदय०-उवसम-मिच्छादि -असण्णि-अणाहारित्ति वसव्वं । आहार०-आहारमिस्स० अस्थि अवहिदविहत्तिया। एवमकसायि०-सुहुमसांपराइय०-जहाक्खाद०अभवसिद्धि ०-सासण-सम्मामिच्छाइ० । एवं समुक्त्तिणा समत्ता। तीनों प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुर्दशनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंमें कथन करना चाहिये । अर्थात् इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें भुजगार, अल्पतर और अस्थित ये तीनों प्रकारके स्थान पाये जाते हैं। पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित ये दो स्थान पाये जाते हैं भुजगार नहीं। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, मिथ्याष्टि, असंज्ञो और अनाहारक जीवोंमें कथन करना चाहिये । अर्थात् इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें भुजगारके बिना अल्पतर और अवस्थित ये दो स्थान पाये जाते हैं। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें केवल एक अवस्थित विभक्तिस्थानवाले ही जीव होते हैं। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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