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________________ trader हिदे कसा पाहुडे * भुजगारो अप्पदरो अवद्विदो कायव्वो । S ४१७. देण भुजगाराणिओगद्दारं सूचिदं जइवसहाइरिएण । कथं भुजगारअप्पदर - अवहिदाणं तिन्हं पि भुजगारसण्णा ? ण, तिन्हमण्णोष्णाविणाभावीण मण्णोष्णसणाविरोहादो, अवयविदुवारेण तिन्हमवयवाणमेयत्तादो वा । भुजगाराणिओगद्दारं किमहं वुच्चदे ? पुव्वतपदाणमवद्वाणाभावपरूवणां । तत्थ भुजगारविहत्तीए इमाणि सत्तारस आणओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा - समुक्कित्तणा सादियविहत्ती अणादिवत्ती धुवहित्ती अद्ध्रुवविहत्ती एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागो परिमाणं खेतं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुअं चेदि । ३८४ १४१८. समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अत्थि भुजगार - अप्पदर - अवद्विदविहत्तिया । एवं सत्तसु पुढवीसु | तिरिक्ख-पांचदियतिरिक्ख-पंचिं० तिरि० पज्ज०-पंचिं० तिरि० जोणिणी - मणुसतिय देव भवणादि जाव * अब विभक्तिस्थानोंके विषय में भुजगार, अन्पतर और अवस्थित स्थानोंका कथन करना चाहिये । $ ४१७. यतिवृषभ आचार्यने इस उपर्युक्त सूत्रके द्वारा भुजगार अनुयोगद्वारको सूचित किया है। [ पयडिविहत्ती २ शंका- भुजगार, अल्पतर और अवस्थित इन तीनोंकी भुजगार संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान-भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीनों एक दूसरेकी अपेक्षासे होते हैं, इसलिये इन्हें तीनोंमें से कोई एक संज्ञा के देने में कोई विरोध नहीं आता है । अथवा अवrathी अपेक्षा ये तीनों अवयव एक हैं, इसलिये भी ये तीनों किसी एक नामसे कहे जा सकते हैं। शंका- यहां भुजगार अनुयोगद्वारका कथन किसलिये किया है ? समाधान- पूर्वोक्त विभक्तिस्थान सर्वथा अवस्थित नहीं है, इसका ज्ञान कराने के लिये यहां भुजगार अनुयोगद्वारका कथन किया है । भुजगार विभक्तिस्थान में ये सत्रह अनुयोगद्वार जानने चाहियें। वे इसप्रकार हैंसमुत्कीर्तना, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति और अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । ४१. उनमें से समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव हैं । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंके नारकियोंमें तथा तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंच, पंचेन्द्रिय योनिमती तियंच, सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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