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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ रिवादरकायअपञ्जत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि विहत्ति० जह• एगसमओ, सेसाणं पयडीणं विहत्ति० जह खुद्दा०, सव्वासिमुक्क० अंतोमुहुत्तं । चत्सारिसुहुमकायिएसु सम्मत्त-सम्मामि०विह० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सेसछव्वीसंपयडीणं विह. जह. खुद्दा०, उक्क० असंखेजा लोगा। सव्वसुहुमपञ्जत्तापजत्ताणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि पअत्तएसु छव्वीसंपयडीणंजह अंतोमुहुत्तं। अठ्ठावीसपयडीणं उक्क० अंतोमुहुत्तं। वणफदिसंख्यात हजार वर्ष है। बादर पृथिवीकायिकअपर्याप्त आदि चार बादरकाय अपर्याप्तजीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और शेष प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है। तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्मपृथिवीकाय आदि चार सूक्ष्मकाय जीवोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यातलोकप्रमाण है। सभी सूक्ष्मपर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंके सभी प्रकृतियोंका काल सूक्ष्मकायिक जीवोंके समान ही कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि उक्त चारप्रकारके सूक्ष्म पर्याप्त जीवोंके छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काल और अट्ठाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। . विशेषार्थ-ऊपर पृथिवीकायिक आदि चार तथा उनके भेद-प्रभेदोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल बताया है। सर्वत्र सम्यकप्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य काल एक समय है यह तो स्पष्ट है। तथा जहां विवक्षितकायका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे अधिक है वहां सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग होता है और जहां विवक्षित कायका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम है वहां उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल कम होता है। तथा शेष छब्बीस प्रकृतियों का काल कहते समय जिस कायका जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल हो उतना उन प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये जो ऊपर बताया हो है। ऊपर बादर पृथिवीकाय आदिके छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल जो कर्म स्थितिप्रमाण बताया है सो इससे मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरका प्रहण करना चाहिये । परिकर्ममें कर्मस्थितिसे भवस्थिति ली गई है इसलिये यहां कितने ही आचार्य कर्मस्थितिसे बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालका ग्रहण करते हैं पर उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि सामान्य बादर जीवका जो भवस्थितिकाल कहा है वही बादर पृथिवीकायिक आदिका नहीं हो सकता। तथा सूत्रग्रन्थों में सामान्य बादर जीवकी भवस्थिति असंख्यातासंख्यात उत्सपिणी और असर्पिणीप्रमाण कही है और बादर पृथिवीकायिक आदिकी भवस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण कही है। इसप्रकार इन दोनोंकी भवस्थिति जब भिन्न भिन्न दो प्रकारसे कही Jdin Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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