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गा० २२ ]
भुजगारविहती फोसणा युगमो
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१४५७. देव० भुज० के० खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो, अट्ठ चोदसभागा वा देखणा | अष्पद० अवद्वि० के० खेतं फोसिदं ९ लोग० असंखे ० भागो, अट्ठ-व-चोद सभागा वा देखणा । एवं सोहम्मीसाणेसु । भवण० वाण ० - जो दिसि० एवं चैत्र, णवर जम्मि अह - णव चोदसभागा देणा त्ति वृतं तम्मि अद्भुट्ट-अट्ठ-णवचोहसभागा देणा त्ति वत्तव्वं । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे त्ति भुज० अप्प० अवडि० केव० ? लोग० असंखे० भागो, अट्ठ- चोहसभागा वा देभ्रूणा । आणदपाणद-आरणच्चुद एवं चेव । णवरि छ चोदसभागा देखणा । उवरि खेतभंगो । एवं वेव्वय मिस्स ० आहार - आहार मिस्स ० अवगदवेद ० अकसा० -मणपञ्जव० सामाइयछेदो०- परिहार ०- सुहुमसांप ० - जहाक्खाद ० - अभविय० वत्तव्वं ।
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३४५८. एईदिंएस अप्प ० के० खेतं फोसिदं ? लोग ० असंखे० भागो, सव्वलोगो
४५७. देवोंमें भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें भुजगार आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श कहना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें भी इसीप्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सामान्य देवोंमें जिन विभक्तिस्थानवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण स्पर्श कहा है, भवनत्रिक देवोंमें त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भाग प्रमाण स्पर्श कहना चाहिये । सनत्कुमार स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तक के देवोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पके देवोंमें भी इसीप्रकार स्पर्श कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि यहांके भुजगार आदि विभक्तिस्थानवाले देवोंने त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इनके ऊपर नौ मैवेयक आदिके देवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्र काययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसपिरायसंयत, यथाख्यातसंयत और अभव्य जीवों में कहना चाहिये ।
४५८. एकेन्द्रियों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया
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