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________________ गा० २२] पयडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो णव्वदे ? आइरियपरंपरागयसयलसुत्ताविरुद्धवक्खाणादो। णवरि तेरस-बारसविहत्तियकालो जहण्णो वि अस्थि सो एत्थ ण विवक्खिओ। एवमोघप्पाबहुअं समत्तं । ३८६. आदेसेण णेरइएसु सव्वथोवो बावीसवि० कालो। सत्तावीसविह कालो असंखेजगुणो, एकवीसविह० कालो असंखेजगुणो, चउवीसविह० संखेजगुणो, छव्वीस-अहावीसविहत्तियकालो विसेसो । पढमाए पुढवीए सव्वत्थोवो वावीसवि. कालो, सत्तावीसविह० असंखेजगुणो, एकवीसविह० असंखेजगुणो, चउवीसविह० इन सात विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल समान है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्य परंपरासे सकल सूत्रोंका जो अविरुद्ध व्याख्यान चला आ रहा है, उससे जाना जाता है कि उक्त विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल समान है। यहां इतनी विशेषता है कि तेरह और बारह विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल भी पाया जाता है पर उसकी यहां विवक्षा नहीं की गई है। विशेषार्थ-क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके चार विभक्तिस्थानका, मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके तीन विभक्तिस्थानका, मायाके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके दो विभक्तिस्थानका और लोभके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके एक विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है । तथा इनसे अतिरिक्त कषायके उदयसे आपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवके चार आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल प्राप्त होता है। किन्तु ऊपर लोभकी सूक्ष्म संग्रह कृष्टिसे लेकर अश्वकर्णकरणके काल तक जो अल्पबहुत्व बतलाया है वह क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवकी प्रधानवासे जानना चाहिये । तथा जो जीव नपुंसकवेदके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है उसके १३ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है और बारह विभक्तिस्थानका जघन्य । तथा जो जीव पुरुषवेद या स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके १३ विभक्तिस्थानका जघन्य काल प्राप्त होता है और १२ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट । किन्तु इस अल्पबहुत्वमें १३ और १२ विभक्तिस्थानके जघन्य कालके कथनकी विवक्षा नहीं की गई है। इस प्रकार ओघ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ३८६.आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें बाईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे सचाईस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है । इससे इक्कीस विभक्तिस्थानका काल असंख्यातगुणा है। इससे चौबीस विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है । इससे छब्बीस और अट्ठाईस विभक्तिस्थानका काल विशेष अधिक है। .. पहली प्रथिवीमें वाईस विभक्तिस्थानका काल सबसे थोड़ा है। इससे सचाईम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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