Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 465
________________ ४४० जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६४८८. आदेसेण णेरईएसुसंखेज्जभागवड्ढी-हाणी-अवठाणाणि कस्स ? अण्णद० सम्मादिष्ठिस्स मिच्छादिहिस्स वा । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख०-पंचिंतिरिक्खतिय-देवभवणादि जाव उवरिमगेवज्ज०-वेउव्विय०-इत्थि०-णqस०-असंजद०-पंचले० वत्तव्वं । पंचि तिरि • अपज्ज० संखेजभागहाणि-अवठाणाणि कस्स ? अण्णद० । एवं मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव सबढ०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पांचंदिय अपज०पंचकाय-तस अपज०-मदि-सुदअण्णाण विहंग०-परिहार०-संजदासंजद-वेदय०-मिच्छा० विशेषार्थ-संख्यातगुणहानि ग्यारह विभक्तिस्थानसे पांच या चार विभक्तिस्थानके प्राप्त होते समय और दो विभक्तिस्थानसे एक विभक्तिस्थानके प्राप्त होते समय ही होती है। और ये विभक्तिस्थान क्षपक अनिवृत्तिकरणमें ही होते हैं। अतः संख्यातगुणहानि क्षपक अनिवृत्तिगुणस्थानवाले जीवके होती है यह कहा है । तथा संख्यातभागहानि और संख्यात भागवृद्धि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकारके जीवोंके सम्भव है, क्योंकि छब्बीस या सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके पहले समयमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता देखी जाती है। अतः सम्यग्दृष्टिके संख्यात भागवृद्धि बन जाती है। इसीप्रकार चौवीस विभक्तिस्थानवाला जो सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसके मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके पहले समयमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता देखी जाती है, अतः मिथ्यादृष्टिके भी संख्यात. भागवृद्धि बन जाती है। तथा मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके संख्यातभागहानिका कथन सरल है। अतः उसका विचार कर खुलासा लेना चाहिये। इसीप्रकार जिस वृद्धि या हानि सम्बन्धी अवस्थान हो उसका भी कथन कर लेना चाहिये। ऊपर जितनी भी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है। ___६४८८. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थान किसके होते है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि नारकीके होते हैं । इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तिथंच, पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिथंच, पंचेन्द्रिय योनीमती तिथंच, सामान्यदेव, भवनवासीसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, असंयत और कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें संख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती है। तथा संख्यातभागवृद्धि संख्यातभागहानि और अवस्थानका खुलासा जिस प्रकार ऊपर किया है उस प्रकार कर लेना चाहिये । __ पंचेन्द्रिय तियंच लब्ध्यपर्याप्तकों में संख्यातभागहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी जीवके होते हैं। इसीप्रकार लब्ध्य पर्याप्तक मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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