Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 476
________________ ५१ गा० २२ वड्ढिविहत्तीए अंतराणुगमो लपरियष्टं देखणं । अवट्ठा० ओघभगो । पंचिंतिरिक्खतियस्स संखेज्जभागवड्ढी-हाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुष्वकोडि-पुधत्तेणव्वहियाणि । अवहा० ओघमंगो। एवं मणुसतियस्स । णवरि संखेज्जगुणहाणीए ओघमंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० संखे० भागहाणी० णत्थि अंतरं । अवहा० जहण्णुक्क० एगसमओ। एवं मणुसअपज्ज०-अणुद्दिसादि जाव सबढ० बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त - सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-पंचकायाणं बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-ओरालियमिस्स-वेउब्धियमिस्स-कम्मइय० वत्तव्वं ।। ओघके समान है। पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनि मती इन तीन प्रकार के तिथंचोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल र्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है। इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्यों के अन्तरकाल कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणहानि भी होती है जिसका अन्तरकाल ओघके समान है। . विशेषार्थ-तिथंच और मनुष्योंमें तथा उनके अवान्तर मेदोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्तरकाल नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये पर इनमें जिसका जितना उत्कृष्ट काल कहा है उसको ध्यानमें रखकर घटित करना चाहिये। शेष कथन सुगम है। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकके संख्यातभागहानिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। तथा अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय होता है। इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकायके बादर पर्याप्त और बादर अपर्याप्त तथा सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी जीवोंके कहना चाहिये । विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक आदि उपर्युक्त मार्गणाओंमें संख्यातभागहानिका अन्तर नहीं प्राप्त होता, क्योंकि एक जीवकी अपेक्षा उक्त मार्गणाओंका काल थोड़ा है जिससे वहां दो बार संख्यात भागहानि नहीं बनती । यद्यपि नौ अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंका काल बहुत अधिक है पर वहां भी दो बार संख्यात भागहानि नहीं प्राप्त होती अतः इन मार्गणाओंमें संख्यात भागहानिका अन्तरकाल नहीं कहा । तथा इन सभी मार्गणाओंमें संख्यातभागहानिका जो एक समय काल है वही यहां अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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