________________
४६८
जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ . ५२२. इंदियाणुवादेण एइंदिय० संखेज्जभागहाणि-अवष्टि० तिरिक्खोघं । एवं बादर-सुहुम - पज्जत्तापज्जत्त- चत्तारिकाय - बादरअपज्ज०-सुहुमपज्जत्तापज्जत्त- सव्ववणप्फदि०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-असण्णि०-अणाहारि त्ति वत्तव्वं । [पंचिं०] पंचिंदियपज्ज-तस-तसपज्ज० संखेज्जभागहाणि-अवढि० के० खे० फो० ? लोगों असंखे० भागो, अह चोदस० देसूणा, सबलोगो वा। सेसप० ओघभंगो। एवं पंचमण-पंचबचि०-पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति । वेउब्बिय० संखेज्जभागवड्ढी० के०
खे० फो० १ लोग० असंखे०भागो अह चो० देसूणा । संखेज्जभागहाणि-अवडि० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग असंखे० भागो, अट्ठ-तेरह-चोदसभागा देसूणा । वेउन्वियमिस्स०-आहारमिस्स० - अकसा०-मणपज्ज-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार० सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०-अभव० खेत्तभंगो । इत्थि० पंचिंदियभंगो। णवरि संखेज्ज
$ ५२२. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियों में संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका स्पर्श सामान्य तिर्यचोंमें उक्त पदोंके आश्रयसे कहे गये स्पर्शके समान है। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवी कायिक आदि चार स्थावरकाय, बादर पृथिवीकायिक आदि चारोंके अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि चारोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मेणकाययोगी, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके स्पर्श कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, प्रस, सपर्याप्त जीवोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है। लोकके असंख्यातवे भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्श ओषके समान है। इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संझी जीवोंके स्पर्श कहना चाहिये।
_वैक्रियिककाययोगियोंमें संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका सर्श किया है। संख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले वैक्रियिककाययोगी जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और तेरह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत और अभव्य जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है।
स्त्रीवेदमें स्पर्श पंचेन्द्रियोंके स्पर्शके समान है। इतनी विशेषता है कि बीवेदी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org