Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 497
________________ ४७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ संजदासंजद-वेदय-मिच्छाइ०-असण्णि-अणाहारि ति ।। ६५२७. मणुस० संखेजभागवड्ढी-संखेजगुणहाणी० के० १ जह• एगसमओ, उक्क० संखेजा समया। सेस० ओघं । मणुसपजत्त-मणुसिणीसु संखेजभागवड्ढीहाणि० संखेगुणहाणि० के० १ जह० एगसमओ, उक० संखेजा समया। अवहि. सव्वद्धा । मणुसअपज० संखेअभागहाणी० के० ? जह० एगसमओ उक्क० आवलि. असंखे० भागो। अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो एवं ज्ञानी, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके उक्त दोनों स्थानोंका काल कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें संख्यातभागहानि और अवस्थान ही होते हैं, अतः इनमें संख्यातभागहानि और अवस्थानका उक्त काल बन जाता है। ६५२७. मनुष्योंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्यों में शेष स्थानोंका • काल ओघके समान है। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनी जीवोंमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अवस्थितका सर्व काल है । लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें संख्यातभागहानिका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग है। तथा अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । इसीप्रकार वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंके उक्त दोनों पदोंका काल जानना चाहिये। विशेषार्थ-मनुष्यों में संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानि पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंके ही होती हैं और इनका प्रमाण संख्यात ही हैं, अतः मनुष्योंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। सामान्य मनुष्योंमें लब्ध्यपर्याप्तक भी सम्मिलित हैं अतः मनुष्योंमें संख्यात भाग हानिका काल ओघके समान बन जाता है। तथा अवस्थितका काल ओघके समान स्पष्ट ही है। मनुष्य पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्योंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय क्यों है इसका कारण ऊपर हमने बतलाया ही है। इनके संख्यातभाग हानिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका भी यही कारण जानना चाहिये । तथा इनमें भी अवस्थितका काल ओघके समान बन जाता है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य और वैक्रियिकमिश्र ये मार्गणा सान्तर हैं । यदि इन मार्गणाओंमें नाना जीव निरन्तर होते रहें तो तो पन्यके असंख्यातवेंभाग प्रमाण काल तक ही होते हैं । अतः इनमें अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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