Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 475
________________ जयधपलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६४६६. आदेसेण गेरईएसु संखेज्ज० भागवड्ढी-हाणी० अंतरं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अवडि• ओघं । पढमादि जाव सत्तमि त्ति संखेज्जभागवड्ढी-हाणी० अंतरं जह० अंतोमु०, उक्क० सगसगुक्कस्साहदी देसूणा। अवहा ओघभंगो। तिरिक्ख० संखे० भागवड्ढीहाणी जह० अंतोमु० । उक्क० अद्धपोग्ग- . संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और पल्यका असंख्यातवाँ भागकम अधपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण प्राप्त होता है। जो संख्यातभागवृद्धि आदिका एक समय जघन्य काल है वही अवस्थितका जघन्य अन्तर जानना चाहिये। तथा संख्यात भागहानिका जो दो समय उत्कृष्टकाल है वही अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर जानना चाहिये । या सम्यक्त्व अथवा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला जो जीव पहले समयमें २७ या २६ विभक्तिस्थानवाला हुआ और दूसरे समयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके २८ विभक्तिस्थानवाला हो गया उसके भी अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर दो समय पाया जाता है। तथा चार, तीन और दो विभक्तिस्थानोंका जितना काल है वह संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । जिसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है। ६४९६, आदेशकी अपेक्षा नाकियोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तथा इनके अवस्थितका अन्तर ओघके समान है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थानका अन्तर ओघके समान है। विशेषार्थ-जिस नारकी जीवने भवके आदि में पर्याप्त होनेके पश्चात् वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके संख्यातभागहानि की है। तथा भवके अन्तमें पुनः जिसने अनन्तानुबन्धी विसंयोजना करके संख्यातभागहानि की है। तथा मध्यके कालमें जो २४ और २८ विभक्तिस्थानवाला बना रहा है, उसके प्रारम्भ और अन्तके कालको छोड़कर शेष तेतीस सागर काल संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। तथा २७ या २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जिस नारकी जीवने पर्याप्त होनेके पश्चात् प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके संख्यातभागवृद्धि की । अनन्तर २४ विभक्तिस्थानको प्राप्त करके भवके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर जिसने पुन: मिथ्यात्वमें जाकर २८ विभक्तिस्थानको प्राप्त किया उसके प्रारम्भ और अन्तके कालको छोड़कर शेष तेतीस सागर काल संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है। शेष अन्तर कालोंका कथन जिसप्रकार ओघमें कर आये हैं उसी प्रकार यथासम्भव यहां टित कर लेना चाहिये। तियंचोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। तथा अवस्थानका अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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