Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 463
________________ अयधवलासहिदे कसायपाहुडै [ पयडिविहत्ती २ ६४८६. आदेसेण परईएसु अस्थि संखेजभागवड्ढी-हाणी-अवट्ठाणाणि । एवं सम्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिं०तिरिक्वतिय-देव-भवणादि जाव उपरिमगेवज०-वेउव्विय०इत्थि०-णस०-असंजद०-पंचलेस्सा० वत्तव्यं । पंचिंदियतिरिक्खअपज० अस्थि संखेजमागहाणी-अवहाणाणि । एवं मणुस्सअपञ्ज०-अणुद्दिसादि जाव सबह-सव्वएइंदियसबविगलिंदिय-पंचिदिय-अपज०-पंचकाय०-तसअपज०- ओरालियमिस्स०-वेउब्धियमिस्स-कम्मइय० - मदि-सुद अण्णाण-विहंग० - परिहार०- संजदासंजद-वेदय - मिच्छादि०-असण्णि-अणाहारीणं वत्तव्यं । आहार० आहारमिस्स० णत्थि समुकित्तणा, वड्ढी-हाणीहि विणा अवहाणाभावादो । अथवा अत्थि वड्ढी-हाणीणिरवेक्ख संख्यातभागवृद्धि और उसका अवस्थान ही सम्भव है, क्योंकि २४, २६ और २७ प्रकृतिक विभक्तिस्थानसे २८ प्रकृतिक विभक्तिस्थानके प्राप्त होनेपर संख्यातवें भाग प्रमाण क्रमश: ४, २ और १ प्रकृतिकी ही वृद्धि होती है। ऊपर जितनी भी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है । आगे आदेशकी अपेक्षा भी जहां जो वृद्धि हानि और अवस्थान कहा हो उसे इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिये। ४८६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागहानि और इनके अवस्थान होते हैं । इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तिथंच, पंचेन्द्रिय तिच, पर्याप्त तिथंच और योनिमती तिथंच, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अबेयक तकके देव, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, असंयत और प्रारंभके पांच लेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें संख्यात गुणहानिको छोड़ कर शेष सब पद होते हैं। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें संख्यातभागहानि और अवस्थान ये दो स्थान होते हैं। इसीप्र र मनुष्यलब्ध्यपर्याप्त, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें संख्यातभागहानि और अवस्थान ही होते हैं, क्योंकि इनमें भुजगार विभक्ति नहीं पाई जाती। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके समुत्कीर्तना नहीं है, क्योंकि वहां स्थानोंकी वृद्धि और हानि नहीं पाई जाती है और इनके न पाये जानेसे वहां इनका अवस्थान नहीं हो सकता है। अथवा उक्त दोनों योगवाले जीवोंमें वृद्धि और हानिकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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