Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गां ० २२ ]
पदणिक्खेवे सामित्तं
एवं समुत्तिणा समत्ता ।
४७८. सामित्तं दुविहं जहण्णुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? अण्णदरो जो चउवीससंतकम्मिओ मिच्छत्तं गदो तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरस्स जो एकवीससंतकम्मिओ अडकसाए खवेदि तस्स उक्कस्सिया हाणी । तस्सेव से काले उक्कस्समवद्वाणं । एवं मणुसतिय-पंचिदिय-पंचिं ० पञ्ज०-तस-तसपज० पंचमण० - पंच वचि०- कायजोगि०- ओरालि० - तिष्णिवेद० - चत्तारि क० चक्खु०- अचक्खु ० -सुक्क०भवसिद्धि०-सणि आहारिति ।
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४७६. आदेसेण रइएसु उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? अण्णदरस्स अनंतापुबंधिचक्कं विसंजोइय संजुत्तस्स । हाणी कस्स ! अण्णदरस्स अट्ठावीस -संतकम्मियस्स अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएंतस्स उक्कस्सिया हाणी । एगदरत्थ अवद्वाणं । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिं० तिरि०- पंचितिरि० पञ्ज० - पंचितिरि० जोगिणी - देव-भवणादि जाव
इसप्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई ।
४७८. जघन्य और उत्कृष्ट के भेदसे स्वामित्व दो प्रकारका है । उनमें से उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाला जो कोई जीव मिध्यात्वको प्राप्त हुआ, उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो कोई जीव आठ कषायों का क्षय करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । तथा इसी जीवके तदनन्तर कालमें उत्कृष्ट अबस्थान होता है । इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
३ ४७५. आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके पुनः उससे संयुक्त होता है अर्थात् अनन्तानुबन्धीकी सत्तावाला होता है उस नारकी जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । नारकियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस नारकीके पहले अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है उसके अनन्तर जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । तथा इनमें से किसी एक स्थानमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । इसीप्रकार सभी नारकी, तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम मैवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, असंयत और कृष्ण आदि पांच लेश्याबाले
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