Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 460
________________ गा० २२) पदणिक्खेवे अप्पाबहुधे गद०-मदि-सुद-अण्णाणि-विहंग०-आमिणि-सुद०-ओहि-मणपज०-संजद०-सामाइयछेदो०- परिहार०- संजदासंजद०- ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय० -वेदय० -मिच्छादि. असण्णि० अणाहारि त्ति वत्तव्वं । आहार०-आहारमिस्स० णत्थि अप्पाबहुअं एगपदत्तादो । एवमकसा-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभव०-उवसम०-सासण-सम्मामि। एवमुक्कस्सप्पाबहुअं समत्तं । ३४८४. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्तक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदशनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । बिशेषार्थ-यहाँ पर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंसे लेकर अनाहारकजीवों तक ऊपर गिनाये गये मार्गणास्थानों में उत्कृष्ट हानि और अवस्थानको जो पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट हानि और अवस्थानके समान बताया है, इसका यह अर्थ नहीं कि जिसप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रियतियंचोंमें उत्कृष्ट हानि और अवस्थानका प्रमाण एक है उसीप्रकार इन सब उपर्युक्त मार्गणास्थानोंमें भी उत्कृष्ट हानि और अवस्थानका प्रमाण एक एक है। यहां पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान कहने का प्रयोजन केवल इतना ही है कि जिस प्रकार पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट हानि और अवस्थान ये दोनों समान हैं उसी प्रकार ऊपर कही गई मार्गणाओंमें भी उत्कृष्ट हानि और अवस्थानकी समानता जान लेना चाहिये। किस मार्गणामें उत्कृष्ट हानि और अवस्थान कितना है यह ऊपर स्वामित्वानुयोगद्वारमें बतला ही आये हैं। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानिसम्बन्धी अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि इनके जो स्थान होता है आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके काल तक वही एक बना रहता है उसमें अन्य प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानि नहीं होती। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । अर्थात् आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान इनके भी प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानि सम्बन्धी अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है। इसप्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ४८४, अब जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसका निर्देश दो प्रकारका होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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