Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 452
________________ ४२७. गा० २२] पणिक्खेवे समुक्तित्तणा जाव सव्वदृ०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं० अपज्ज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स ० - वेउव्वियमिस्स ० - कम्मइय ० -अवगदवेद-मदि - सुदअण्णाण-विहंगआभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार०- संजदासंजद०ओहिदंस०-सम्मादि-खइय०-वेदय-मिच्छादि-सण्णि-अणाहारित्ति। आहार-आहारमिस्स०-अकसा०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभव्व०-उवसम०-सासण-सम्मामि० अस्थि उकस्समवहाण । एवमुक्कस्सवड्ढी-हाणि-अवट्ठाण-समुक्त्तिणा समत्ता। ६४७७. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सर्व विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ-आदेशकी अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि नहीं होती। किन्तु उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका विचार करते समय जिस जिस मार्गणामें अधिकसे अधिक जितनी प्रकृतियोंकी हानि और तदनन्तर अवस्थान होता है वही यहां उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान लिया गया है । उदाहरणके लिये लठध्यपर्याप्त तिथंचों में अधिकसे अधिक एक प्रकृतिकी ही हानि होती है तथा मतिज्ञानियोंके अधिकसे अधिक आठ प्रकृतियोंकी हानि होती है । अतः ये अपनी अपनी अपेक्षासे उत्कृष्ट हानियां जानना चाहिये। इसीप्रकार ऊपर जितनी और मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी समझ लेना। ___ आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसापरायिकसयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि, जीवोंमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। विशेषार्थ-ये आहारककाययोगी आदि मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें स्थानकी हानि वृद्धि तो नहीं होती, परन्तु इनमें अभव्यमार्गणाको छोड़ कर शेष सब मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और जघन्य अवस्थान सम्भव है। उनमेंसे यहां उत्कृष्ट अवस्थानका ग्रहण किया है । यद्यपि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करते हैं, अतः वहां उत्कृष्ट हानि सम्भव है पर यह कुछ आचार्योंका मत है इसलिये इसकी यहां विवक्षा नहीं की। इस प्रकार वृद्धि हानि और अवस्थानरूप समुत्कीर्तना समाप्त हुई । - $४७७. अब जघन्य वृद्धि आदिकी समुत्कीर्तनाका प्रकरण है। इसकी अपेक्षा निर्देश For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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