Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
terrane कसा पाहुडे
४१०
ति वत्तव्वं ।
९४६५. पंचिंदियतिरिक्खअपज० अप्पदर० जह० एगसमओ उक्क० चउवीस अहो रत्ता सादि० | अवधि ० णत्थि अंतरं । एवमणुद्दिसादि जाव अवराइद ति सव्वएइंदियसव्वविगलिंदिय- पांच० अपज०- पंचकाय० तसअपज० - ओरालियमिस्स ०- कम्मइय०मदि - अण्णाण-सुदअण्णाण विहंग०-आभिणि०- सुद० - ओहि ० मणपज० -संजद- सामाइयछेदो० - परिहार • संजदासंजद ० - ओहिदंस० - सम्मादि० - वेदय०-मिच्छादि० - असण्णि० -अणा हारि त्ति वत्तव्वं । मणुस-अपज अप्पदर अवट्टि० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो ० असंखे • भागो । सव्वट्टे अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । S१६६. अणुद्दिसादि अवराइयदंताणं अप्पदरस्स अंतरं एत्थ उच्चारणाए चउवीस अहोरत्तमेत्तमिदि भणिदं । बप्पदेवाइरियलिहिद- उच्चारणाए वासपुधत्तमिदि परूविदं । दासिंदोहमुच्चारणाणमत्थो जाणिय वत्तव्वो अम्हाणं पुण वास धत्तंतरं सोहलेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
०
[ पयडिविहती २
९४६५. पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकों में अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है । तथा अबस्थित विभक्तिस्थानका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । अर्थात् अवस्थित विभक्तिस्थानवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीव सर्वदा पाये जाते हैं । इसीप्रकार अनुविशसे लेकर अपराजित तक के देवोंमें तथा सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थानासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि वेदकसम्म दृष्टि, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कहना चाहिये ।
मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतर विभक्तिस्थानबाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
Jain Education International
$ ४६६. अनुदिशसे लेकर अपराजितकल्प तकके देवोंके अल्पतर विभक्तिस्थानका अन्तरकाल यहाँ उच्चारणा में चौबीस दिनरात कहा है, पर वप्पदेवके द्वारा लिखी गई उषारणा वर्षपृथक्त्व कहा है । अतएव इन दोनों उच्चारणाओंका अर्थ समझकर अन्तर कालका कथन करना चाहिये । पर हमारे ( वीरसेन स्वामीके ) अभिप्रायसे वर्ष पृथक्त्व अन्तरकाल ही ठीक प्रतीत होता है। क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका उत्कृष्ट
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org