Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 447
________________ ४२३ taaree कसा पाहुडे [ पयडिविहती २ सम्मामि ० अवद्वि० जह० एगसमओ । उक्क० चउवीसअहोरत्ताणि सादि ० उवसमसम्मादिद्वीणमंतरं । सेसदोण्हं वि पालदो ० असंखे० भागो । उवसम० अप्पदर० अवदि० भंगो । एवमंतराणुगमो समत्तो । ६४६८. भावानुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो । एवं भावाणुगमो समत्तो । ६४६६. अप्पा बहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया, भुजगारविहत्तिया विसेसाहिया, अवद्विदविहत्तिया अनंतगुणा । एवं तिरिक्ख - कायजोगि ओरालिय० णवुंस० - चत्तारिकसा० - असंजद ० - अचक्खु० किण्ह णील- काउ०- भवसिद्धि ० - आहारिति । ६४७०. आदेसेण णेरइएसु सव्वत्थोवा अध्पदर०, भुज० विसेसाहिया, अवधि ० असंखेअगुणा । एवं सव्वणेरइय-पंचिदियतिरिक्खतिय देव भवणादि जाव उवरिमगेवज० - पंचिदिय पंचिं० पज० -तस तसपज० - पंचमण० - पंचवचि ० - वेउब्विय० - इस्थिदृष्टि और सम्यमिध्यादृष्टि जीवों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । और उपशमसम्यग्दृष्टियों में उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है तथा सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टियों में उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अल्पतर विभक्तिस्थानका अन्तर अवस्थितके समान है । इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ । ४६८. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाग होता है । इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ । ६ ४६६. अम्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा अल्पतर विभक्तिस्थान वाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थान वाले जीव अनन्तगुणे हैं । इसीप्रकार सामान्य तिर्यंच, काययोगी, औदारिक काययोगी नपुंसक वेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, भव्य तथा आहारक जीवोंमें अल्पतर आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहना चाहिये । S ४७०. आदेश की अपेक्षा नारकियोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे भुजगारविभक्तिस्थानवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सभी नारकी, पंचेन्द्रियतियच, सामान्य पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच, पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक के देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस त्रपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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