Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 449
________________ १२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ सवाणगोद० -ओरालियमिस्स० -कम्मइय-मदि-सुद-अण्णाण -मिच्छा० -असण्णिअणाहारित्तिवत्तव्यं। आहार०-आहारमिस्स०-अकसाय०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अभब०. उपसम० सासण-सम्मामि० णात्थ अप्पाबहुअं एगपदत्तादो। अथवा उवसमा सम्वत्थो० अप्पद०, अवढि० असंखेगुणा । एवं पयडिभुजगारविहत्ती समत्ता । - निमोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यारष्टि, असंही और अनाहारक जीवों में अल्पतर आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहना चाहिये। आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाच्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टियों में अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, इनमें एक अवस्थितस्थान ही पाया जाता है । अथवा, उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अल्पतरविभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसप्रकार प्रकृतिभुजगारविभक्ति समाप्त हुई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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