Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 443
________________ ११८ जयपपलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ उवसमसम्मत्तकालं पेक्खिय अणंताणुबंधिचउक्कविसंजोयणाकालस्स बहुत्तादो अणंताणुबंधिविसंजोयणपरिणामाणं तत्थाभावादो वा । एत्थ पुण विसंजोयणापक्खो चेव पहाणभावेणावलंबियव्वो पवाइजमाणत्तादो चउवीससंतकम्मियस्स सादिरेयबेछावहिसागरोवममेत्तकालपरूवयसुत्ताणुसारित्तादो च। तदो अप्पदरसंभवो वि सव्वत्थाणुम समाधान-उपशम सम्यक्त्वके कालकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाका काल अधिक है, अथवा वहां अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके कारणभूत परिणाम नहीं पाये जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबधीकी विसंयोजना नहीं होती है। फिर भी यहां उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है यह पक्ष ही प्रधानरूपसे स्वीकार करना चाहिये; क्योंकि, इस प्रकारका उपदेश परंपरासे चला आ रहा है। तथा इस प्रकारका उपदेश 'चौबीस सत्त्वस्थानवाले जीवका काल साधिक एकसौ बत्तीस सागरप्रमाण है' इस प्रकार प्ररूपण करनेवाले सूत्रके अनुसार है। इस लिये सर्वत्र उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानकी सम्भावना भी समझ लेना चाहिये । विशेषार्थ-यहां उपशमसम्यक्त्वमें अल्पतरविभक्तिका कथन नहीं किया है। इसपर शंकाकारका कहना है कि उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके २८ विभक्तिस्थानसे २४ विभक्तिस्थानको प्राप्त होता है अतः उसके अल्पतरविभक्तिका कयन करना चाहिये । इस शंकाका समाधान करते हुए बीरसेन स्वामीने बतलाया है कि 'उच्चारणाचार्यने उपशमसम्यग्दृष्टिके एक अवस्थित पदका ही कथन किया है और यहां भुजगारविभक्तिका कथन उन्हींके कथनानुसार किया जा रहा है। अत: उपशमसम्यक्त्वमें अल्पतरविभक्तिका कथन नहीं किया है। यद्यपि उच्चारणाचार्यका यह उपदेश उपशमसम्यस्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका कथन करनेवाले उपदेशके प्रतिकूल पड़ता है, किन्तु मूल सूत्रप्रन्योंमें अनुकूल या प्रतिकूल कोई उल्लेख न होनेसे ये दोनों उपदेश परस्पर बाधित नहीं होते, अतः दोनों उपदेशोंका संग्रह करना चाहिये।' उपशमसम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नही होती इसकी पुष्टिमें बीरसेन स्वामीने दूसरी यह युक्ति दी है कि उपशमसम्यक्त्वके कालसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजनाकाल संख्यातगुणा है। अत: उपशमसम्यक्त्वके कालमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना सम्भव नहीं है। किन्तु वीरसेनखामी 'उपशमसम्यक्त्वके कालसे अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजना काल संख्यातगुणा है' यह किस आधारसे लिख रहे हैं इसका हमें अभी स्रोत नहीं मिल सका। मालूम होता है यह मत भी उन्हीं उच्चारणाचार्यका होगा जिनके मतसे यहां उपशमसम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाका निषेध किया है। हां, यह उल्लेख अवश्य पाया जाता है कि 'अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विसंयोजनाकालसे उपशम For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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